Monday, May 2, 2016

गौर से सुनिए इस आहट को

12 अप्रैल सुबह खबर आई कि मेरठ के मिलिट्री अस्पताल में तेंदुआ घुस आया है। लगातार तीन दिनों तक तेंदुआ लोगों को छकाता रहा। तेंदुए ने विभागों की पोल खोल दी। तेंदुए के पकड़े जाने के बाद लोगों ने राहत की सांस ली। इस घटना के हर दूसरे या तीसरे दिन कहीं न कहीं से तेंदुआ देखे जाने की खबरें आती रहती हैं। हालांकि नेशनल मीडिया इन खबरों को ज्यादा तवज्जो नहीं देता। ये पिछले दो वर्षों में मेरठ में तेंदुआ आने की दूसरी घटना थी। इससे पहले फरवरी 2014 में भी मेरठ कैट तेंदुआ घुस आया था। मेरठ के लोग खुशकिस्मत थे कि तेंदुए ने लोगों की जान को नुकसान नहीं पहुंचाया, लेकिन कल्पना कीजिए तेंदुआ की जगह बाघ या शेर झुंड में घुस आए तो क्या होगा।

महाराष्ट्र भयंकर सूखे की चपेट में है। हालात इतने बिगड़े हैं कि लोग पानी के लिए अपनी जान भी गंवा रहे हैं। कुएं में जान जोखिम में डालकर पानी भरते महिलाओं और।बच्चों की तस्वीरें झकझोर देती हैं। ये सिर्फ महाराष्ट्र की ही बात नहीं है, देश के कई हिस्सों की यही कहानी है। भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। मेरे गांव में घर के अंदर का कुआं जिसे पंप के जरिए नहीं सुखाया जा सकता था, अब बरसात में भी सूखा रहता है।

महाराष्ट्र में सूखे को लेकर सरकार ने आईपीएल मैच में पानी देने से इनकार कर दिया। मामला कोर्ट तक गया। आखिरकार आईपीएल मैच महाराष्ट्र से बाहर कर दिया गया। माना आईपीएल से करोड़ों रुपये का राजस्व प्राप्त होता है, लेकिन क्या इसके लिए अमूल्य संसाधनों को बर्बाद किया जा सकता है? सिर्फ पानी ही क्यों डे-नाइट मैच में बिजली की भी बर्बादी होती है।

सुना है एक उद्योगपति विदेश गए थे, वहां उन्होंने जरुरत से ज्यादा खाने का ऑर्डर कर दिया, वो उतना खाना खा नहीं पाए। जब उन्हें एक बुजुर्ग महिला ने टोका तो उन्होंने कहा कि मैंने इसकी कीमत चुकाई है। महिला ने पुलिस को फोन किया और उन्हें जुर्माना देने पड़ा। ठीक उसी तरह अगर कोई पानी या बिजली की ऊंची कीमत अदा करने की क्षमता रखता है तो क्या उसे इसकी बर्बादी करने का हक मिल जाता है?  देश के कई इलाकों में जब लोगों को पीने का पानी नहीं मिल पाता और लोग अंधेरे में जीने को मजबूर हैं तो ऐसी बर्बादी अपराध के समान है।

नेताओं के साथ लोगों की संवेदनशीलता देखिए। सूखे का सर्वे करने गए एक मंत्री के लिए हैलिपैड बनाने के लिए हजारों लीटर पानी बर्बाद कर दिया जाता है। कोई सूखे की सेल्फी ले रहा है। मेरठ में पिछले दिनों हजारों लीटर गंगाजल नाले में बहा दिया या, वजह सिर्फ क्रेडिट लेने की होड़। वहीं जनता भी निश्चिंत है। वो आज में जीती है, हमें इससे क्या लेना हमारे पास तो पानी है, कल की सोचेंगे कल को। मेरठ से दिल्ली आते समय कई जगहों पर लोग हाथों में पाइप लिए सड़क पर पानी छिड़कते मिल गए।

सूखे की चर्चा के बीच अब फसलों के पैटर्न पर चर्चा होने लगी है। किसी का कहना है कि महाराष्ट्र में गन्ने का फसल उगाना बंद कर देना चाहिए तो कोई कहता है कि धान के फसल को बहुत अधिक पानी की जरुरत होती है। इसे भारत में बंद कर देना चाहिए। मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूं, लेकिन मेरा मानना है कि प्रकृति ने हर क्षेत्र मौसम के मुताबिक पेड़-पौधे दिए हैं। उससे छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए। अगर किसी क्षेत्र के लिए कोई फसल उपयुक्त नहीं है तो उसे वहां नहीं उगाना चाहिए, लेकिन अगर उपयुक्त है तो उसे बंद भी नहीं करना चाहिए। जैसे यूकेलिप्टस का पेड़ सभी जगह लगाए जा रहे हैं. दलदली इलाके के इस पौधे को प्रकृति का आतंकवादी कहा जाता है, क्योंकि यह पानी को तेजी से सोख लेता है, खुद तो तेजी से बढ़ता है, लेकिन आस-पास की जमीन को बंजर बना देता है, लेकिन इसके बाद भी फलदार वृक्षों पर यहां इसे तरजीह दी जा रही है। उत्तराखंड के जंगलों में आग लगी है। वजह वही संवेदनहीनता। फरवरी में आग लगी, लेकिन जिम्मेदार लोग सोते रहे। आग का कारण चीड़ के पेड़, जिन्हें कभी अंग्रेजों ने लगाया था। ये पेड़ भी प्रकृति के आतंकवादी हैं। ये जैव विविधता के लिए खतरा हैं, फिर भी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। 

चाहे सूखे की समस्या हो या तेंदुए का शहर में घुसना, या उत्तराखंड के जंगलों की आग इन्हें एक-साथ देखने की जरुरत है। ये प्रकृति से खिलवाड़ और हमारी संवेदनहीनता के नतीजे हैं। यह एक आहट है। इस आहट को गौर से सुनिए। कहीं देर न हो जाए। आज भले ही हम सुरक्षित हैं, लेकिन याद रखिए इतिहास सब का लिखा जाता है। आज कोई और भुगत रहा है। कल हमारी बारी हो सकती है।

Tuesday, December 29, 2015

बैन समस्या का समाधान नहीं, विकल्प भी दीजिए



ऑड ईवन फॉर्मूला कितना कारगर रहेगा? चित्र गूगल से साभार
पिछले साल मेरी भांजी की पहली पोस्टिंग मेरठ में हुई। बड़ी दीदी और जीजाजी को झारखंड से मेरठ आना था। किसी भी ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिला, फिर उन लोगों ने कार से ही लंबी दूरी तय करने का फैसला किया। आपको लग रहा होगा कि ये बातें मैं क्यों कर रहा हूं। दरअसल दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार को फटकार लगाई थी। इसके बाद दिल्ली सरकार ने आनन-फानन में ऑड-ईवन का फॉर्मूला दे दिया। पहली जनवरी से इसका ट्रायल है। कोर्ट की टिप्पणी के बाद सरकार ने फॉर्मूला तो दे दिया, लेकिन इसके लिए तैयारी करना जरूरी नहीं समझा। दिल्ली में जिस रफ्तार से गाडिय़ों की संख्या बढ़ रही हैं उसे देखते हुए नहीं लगता कि यह कदम कारगर होगा। विदेशों में भी यह फॉर्मूला कारगर नहीं रहा है। विदेशों में जहां इसे लागू किया गया, वहां लोगों ने एक से अधिक गाडिय़ां खरीदनी शुरू कर दीं। प्रदूषण की समस्या सिर्फ दिल्ली की ही नहीं है, बल्कि आगरा, कानपुर, पटना जैसे शहरों शहरों में भी स्थिति चिंताजनक है। प्रदूषण का तो ये स्तर है कि कुछ सालों में देश में हवा भी बिकती नजर आएंगी। वाटर प्यूरीफायर की तरह एयर प्यूरीफायर के विज्ञापण तो शुरू हो ही चुके हैं।

पर्यावरण पर बढ़ते खतरों के बीच एक अच्छी बात यह है कि अब इस पर चर्चा हो रही है। देश की अदालत भी इस मुद्दे पर सख्त है। यूपी में पॉलिथीन पर बैन लगा दिया गया है और अब एनसीआर में डीजल वाले ऑटो-टैक्सी आदि पर भी बैन लगने वाली है। हालांकि इस तरह की पहल सराहनीय है, लेकिन सवाल है कि यह कहां तक सफल रहेगा।

 सामान लाने में सहूलियत के लिए हम पॉलिथीन का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, यह जानते हुए भी कि पॉलिथीन पर्यावरण के लिए खतरनाक है। पॉलिथीन पर अलग-अलग सरकारों ने कई बार प्रतिबंध लगाया, लेकिन देश भर में कहीं भी बीते प्रतिबंध का असर देखने को नहीं मिला है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि धोखे से पॉलिथीन खाने के कारण हर साल दुनिया भर में एक लाख से अधिक व्हेल मछली, सील और कछुए सहित अन्य जलीय जंतु मारे जाते हैं। जबकि भारत में 20 गाय प्रतिदिन पॉलिथीन खाने से मर रही हैं। हमारे देश में जहां गाय को लेकर लोगों की जान तक चली जाती है, इस मुद्दे पर जागरुकता क्यों नहीं दिखाई जा रही है। कड़ों सालों तक नष्ट न होने वाली पॉलिथीन से नदी नाले ब्लॉक हो रहे हैं और जमीन की उत्पादकता पर भी असर पड़ रहा है। इन तथ्यों को जानकर भी हम खतरे से कब तक अंजान बने रहेंगे।

दूसरी बात ये भी है कि केवल पॉलिथीन और डीजल के ऑटो-टैक्सी पर बैन लगाने से काम नहीं चलेगा। बैन किसी समस्या का बेहतर समाधान साबित नहीं होगा। इसके लिए बेहतर विकल्प भी देना होगा और यह जिम्मेदारी राज्य और केंद्र दोनों सरकारों की है। कहीं दूसरे शहर जाना हो तो लोगों को ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलता। मजबूरन लोगों को प्राइवेट व्हीकल का इस्तेमाल करना पड़ता है। अब अगर डीजल के ऑटो, टैक्सी और बस को बंद कर दिया जाए तो लोगों को कितनी परेशानियां होंगी। दिल्ली की बात करें तो कहीं जाने के लिए दस बार सोचना पड़ता है। बस से जाएं तो सड़क पर जम में रेंगती रहती हैं और मेट्रो से जाएं तो इसमें पैर रखने का भी जगह नहीं होता। ट्रांसपोर्ट सिस्टम की तरह देश के अधिकांश शहरों में बिजली की स्थिति भी अच्छी नहीं है। शहरों में जेनरेटर का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होता है।  

केवल हवा की ही नहीं देश में नदियों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। चाहे गंगा-यमुना हो कोई स्थानीय नदी सभी में जल प्रदूषण खतरनाक स्तर पर जा चुका है। केंद्र सरकार ने गंगा को स्वच्छ करने के लिए नमामि गंगे प्रोजेक्ट तो चलाया, लेकिन जिस गति से यह अभियान चल रहा है उससे इसके सफल होने की संभावना कम ही दिखती है। जब नदियों में नदियों का पानी ही नहीं रहेगा तो साफ किसे करेंगे? प्रकृति के छेड़छाड़ का परिणाम हमें केदारनाथ, श्रीनगर और चेन्नई बाढ़ के रूप में देख चुके हैं। ऐसे संकट अब कम अंतराल पर ही देखने को मिल रहे हैं, लेकिन इससे सबक नहीं लिया जा रहा है। अब समय आ गया है कि फैसला लिया जाए कि विकास और पर्यावरण पर किसे और कितनी तरजीह दी जाए।

इन विकल्पों पर भी विचार किया जा सकता है

-    सस्ता और सुलभ ट्रांसपोर्ट सिस्टम हो। छोटे शहरों तक मेट्रो और रैपीड रेल पहुंचे।

-    ट्रेनों की रफ्तार बढ़े और यह टाइम पर चलें। केवल राजधानी-शताब्दी ही नहीं जनशताब्दी और जनसाधारण जैसी ट्रेनों को भी प्रमुखता दी जाए। अगर यात्रा अवधि कम होगी तो लोग बैठ कर भी सफर कर सकेंगें और ट्रेनों में रिजर्वेशन की मारामारी कम होगी।

-    शहर में पार्किंग की बेहतर व्यवस्था हो।

-    छुट्टियों का दिन और ऑफिस का टाइम अलग-अलग हो, जिससे सड़कों पर एक ही समय गाड़ियों का बोझ न पड़े। वैसे भी रविवार की छुट्टी अंग्रेजों के जमाने का है। अब 24*7 वर्क कल्चर का जमाना है। इससे एक और फायदा होगा कि किसी भी काम को करवाने के लिए ऑफिस से छुट्टी नहीं लेगी होगी। अपने छुट्टी के मुताबिक काम करवाया जा सकेगा।

-    दो गाड़ियां रखने पर टैक्स लगे।

-    भीड़भाड़ वाली जगहों पर केवल ई बस या ई रिक्शा चले।

-    नदियों को साफ रखना है तो नदियों को बांधना बंद करना होगा। भले ही इससे जल विद्युत प्रोजेक्ट बंद करना पड़े। हम इसके लिए सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा को बढ़ावा दे सकते हैं।

-    हवा को साफ रखने के लिए कूड़े जलाने पर सख्ती से बैन लगे। साथ ही आतिशबाजी पर भी बैन लगे।

-    फ्लड लाइट्स में खेले जाने वाले स्पोर्ट्स इवेंट भी बंद किए जाएं। देश में बिजली की कमी को देखते इसे अपराध कहें तो ज्यादा नहीं होगा।

प्रदूषण की समस्या बड़ी है। इसे छोटा करके इसका समाधान नहीं किया जा सकता। इसके लिए बड़े कदम ही उठाने पड़ेंगे। याद रखिए सुरक्षित पर्यावरण से ही हमारी जिंदगी सुरक्षित है और आने वाला न्यू ईयर हैप्पी हो सकेगा।

Monday, October 6, 2014

हमारी जान इतनी सस्ती है?

विजयदशमी के दिन रावण दहन के दौरान पटना के गांधी मैदान में हुए हादसे की खबर से
 

 
पटना में भगदड़ के बाद बिखरे तबाही के निशान. फोटो साभार गूगल
 
हमारे संपादक गुस्से में थे. उन्होंने मुझसे पूछा, क्या बिहार में लोगों की जान इतनी सस्ती है

? अभी दो साल पहले ही छठ पूजा के दौरान भी भगदड़ में लोग मारे गए थे. मिड डे मिल खाकर भी बच्चे मारे जाते हैं. आयरन और विटामिन की गोलियां खाकर भी लोग मर जाते हैं. इंसैफैलाइटिस से का कहर भी वहां टूटता है. वहां तो कोई व्यवस्था ही नहीं है. फिर उन्होंने पटना के बारे में अपना अनुभव सुनाना शुरू किया. उनका कहना था कि उड़ीसा और छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े प्रदेश भी देखा, लेकिन वहां कम से कम एक व्यवस्था काम करती है. अगर अस्पताल वहां नहीं है तो नहीं है, लेकिन है तो फिर अच्छी हालत में है. बिहार में तो कोई व्यवस्था ही नहीं है. अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं आते. पुलिस वाले सड़कों पर गश्त नहीं करते. पब्लिक ट्रांसपोर्ट है ही नहीं. पटना में सड़क पर जहां देखो ऑटो ही नजर आते हैं.  पटना में बारिश बंद होने के एक सप्ताह बाद भी जलभराव की समस्या से निपटने के लिए सेना बुलानी पड़ती है. मेरठ के लोगों के बीच बिहार के बारे में ये सब सुनकर अच्छा तो नहीं लग रहा था, लेकिन बात भी सही थी. आप कह सकते हैं कि ऐसे हादसे कहां नहीं होते. हिमाचल प्रदेश के नैना देवी में हो या जोधपुर के चामुंडा देवी, केरल के सबरीमाला में हो या मध्यप्रदेश के दतिया में हो ऐसे हादसे हर जगह हो रहे हैं और इनमें सैंकड़ो लोग मारे जा रहे हैं, लेकिन व्यवस्था वाली बात भी तो सच है.

पीएमसीएच का दौरा करते हुए व्यवस्था की पोल तो जीतनराम मांझी ने भी खोल ही दी. जब उन्होंने सुप्रीटेंडेंट को बुलाया लेकिन वो उपस्थित नहीं हुए. उन्होंने सच कहने की इतनी हिम्मत तो दिखाई. इसके साथ ये भी स्पष्ट हो गया कि वहां सरकार नाम की कोई चीज नहीं है. अधिकारी उनकी सुनते नहीं और इस स्थिति के लिए जिम्मेवार नौ सालों से चल रही उन्हीं की पार्टी की सरकार है. गांधी मैदान से मुख्यमंत्री के निकलने के आधे घंटे के बाद हादसा हुआ. मुख्यमंत्री देर रात वहां पहुंचते हैं. बताया गया कि वो गया जिले में स्थित अपने गांव चले गए थे. क्या आधे घंटे में वो अपने गांव पहुंच गए? अगर आधे घंटे में पहुंच सकते हैं तो उतनी ही जल्दी लौट भी सकते हैं. बताया तो ये भी जा रहा है कि मुख्यमंत्री को घटना की जानकारी ही नहीं थी. क्या आज के हाई स्पीड टेक्नोलॉजी के जमाने में ये संभव है? अगर ये बात सच है तो इससे शर्मनाक क्या हो सकती है? फिर उनको कुर्सी पर बैठने का क्या हक है? कहा तो ये भी जा रहा है कि जिस समय हादसा हुआ वहां के बड़े अधिकारी और मंत्री एक बर्थडे पार्टी में बिजी थे. वहां सरकार का नामोनिशान नहीं था. पुलिस घटनास्थल पर पहुंचने वाली स्थिति में थी.

देश में धार्मिक आयोजनों के समय ज्यादा हादसे होते हैं. एक अफवाह बारूद में चिंगार का काम करती है, लेकिन सरकार और अधिकारियों ने इससे कोई सबक सीखा. जिम्मेवारी को दूसरे पर थोपने, जांच आयोग बिठाने कुछ अधिकारियों को सस्पेंड करने और लाख दो लाख का मुआवजा देने कर मामले को दबाने का निर्लज्ज काम जारी है. जिन्होंने अपनों को खोया है, जिनके लिए दशहरे का जश्न मातम में तब्दील हो गया और जो लोग शायद ही कभी दशहरे की खुशी मना पाएंगें, क्योंकि यह दिन उनके लिए काली याद बनकर रह जाएगी, क्या लाख दो लाख रुपये से उनका जख्म मिट जाएगा? क्या इतनी सस्ती है हमारी जान की कीमत?

पटना के कमिश्नर, डीएम, डीआईजी और एसएसपी का तबादला कर दिया है, लेकिन अधिकारियों पर गैरइरादतन हत्या का मुकदमा क्यों न चलाया जाए? समय है कठोर फैसले का. सिर्फ तबादले और जांच आयोग से काम नहीं चलेगा. अधिकारियों की जिम्मेदारी तय कीजिए और उन्हें सजा दीजिए. सरकार के लिए भी संदेश है कि केवल रटे-रटाए बयानों से काम नहीं चलेगा. एक्शन लिजिए नहीं तो यूपीए-टू के बाद जेडीयू-टू का भी इतिहास लिख दिया जाएगा.

 

Monday, March 17, 2014

होली, ब्लू पानी और बेबी डॉल

आज होली है, लेकिन होली है... या बुरा न मानों होली है का शोर अब तक सुनने को नहीं मिला है. होली को लेकर कोई उमंग नहीं है. कोई फीलिंग नहीं है. न तो पारंपरिक होली गीत सुनने को मिल रहे हैं न ही फिल्मी होली गीत ही. पहले जहां महीने पहले से हवाओं में होली के गीत घुलने लगते थे अब तो होली के दिन भी कम ही सुनने में मिलता है. इनकी जगह अब बेबी डॉल ब्लू आईज और आज ब्लू है पानी ने ले लिया है. ऐसा नहीं है कि गांव से दूर होने के कारण ऐसा लग रहा है. पिछले साल तक होली पर गांव की बहुत याद आती थी, लेकिन वर्षों बाद जब पिछले साल गांव में होली के पर्व में शरीक होने का मौका मिला तो सब कुछ बदला-बदला सा था. अब वहां भी पहले की तरह होली नहीं गाया जाता. अब होली गाने वाले भी नहीं रहे. न तो पहले की तरह रंग और अबीर खेला जाता है. सब लोग अपने में ही सिमट से गए हैं. दिल्ली और एनसीआर में तो रंग से ज्यादा पानी डालते हैं और दोपहर तक होली समाप्त, लेकिन हमें तो बचपन से आदत रही है रंग के बाद शाम में अबीर खेलने की. बड़ों के पैर पर अबीर रख कर आशीर्वाद लेने की और बच्चों को अबीर का टीका और हमउम्रों के गाल में अबीर मलने की.

हां होली के कुछ दिनों पहले से स्टूडेंट्स जरूर दिख जाते हैं रंगे हुए. तो क्या हम नौकरीपेशा हो गए या हमारी उम्र बीत गई इसलिए ऐसा लग रहा है ? मैंने अपने भतीजे-भतीजियों से भी फीडबैक लिया. पता चला वो लोग भी होली की मस्ती से वंचित है. आखिर कुछ तो है.  आखिर इतना कैसा बदल गया त्योहार. ये सिर्फ होली की ही बात नहीं है. दशहरा, दीवाली आदि सभी पर्वों पर पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया. पहले सुनने में आता था कि पर्व तो पैसे वाले के लिए है, लेकिन अब लगता है कि लोग आर्थिक रूप से जितने संपन्न होते जा रहे हैं, सांस्कृतिक रूप से उतने ही विपन्न होते जा रहे हैं. मुझे याद नहीं है कि आज से दस साल पहले हम लोग हैप्पी होली कह कर किसी को शुभकामनाएं देते थे. बस रंग लगाया और जोर से चिल्लाते हुए होली है.... कितनी खुशी मिलती थी. यकीन मानिए हैप्पी होली के आप लोगों को जितने भी मैसेज दे दीजिए वो फीलिंग नहीं आ पाती है. वो खुशी नहीं मिलती है. क्या होली सिर्फ एक दिन की छुट्टी भर रह गया है या नशा करने वालों को नशे में डूबने का दिन. खैर छोड़िए इन बातों को कुछ होली के गीतों का मजा लेते हैं. गांव में किसी मंदिर में जाकर होली गाया जाता है तो पहले देव को समर्पित एक गीत होता है. जैसे मंदिर के खोलो केवाड़ या तुम निकट भवन पर बैठ भवानी. ऐसा ही एक गीत ये भी है..

आए-आए देव के द्वार दर्शन करने को -2
हम सब दर्शन करने को
हम सब दर्शन करने को

कोई नहीं पाए पार दर्शन करने को

आए-आए देव के द्वार दर्शन करने को.

सुर नर मुनि सब चकित भए हो

सुर नर मुनि सब चकित भए


कोई नहीं पाए पार दर्शन करने को


 
आए-आए देव के द्वार दर्शन करने को

 
अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता

महिमा अगम अपार दर्शन करने को

आए-आए देव के द्वार दर्शन करने को.

इसके बाद रामायण या महाभारत के प्रसंग या श्रृंगार रस के कई गीत गाए जाते हैं और सब से अंत में सदा आनंद रहे यह द्वारे मोहन खेले होली हो. सुनने का मजा ही कुछ और है.

Friday, March 22, 2013

बाबा होली और मस्ती


होली का नशा हवा में घुलने लगा है. इसका सुरूर लोगों को अपनी आगोश में लेने लगा है. सब अपनी मस्ती में मस्त हैं. क्या करे मौसम ही कुछ ऐसा है. कहीं होली गाई जा रही है तो कहीं जोगीरा. कहीं लट्ठमार होली खेली जा रही है तो कोई अपनी हरकतों से दूसरों पर लट्ठ बजा रहा है. इसी मस्ती भरे माहौल में मैं बाजार घूमने निकल पड़ा. बड़े दिनों से चाट और गोलगप्पे खाने की इच्छा थी. इसे टाल रहा था लेकिन जब चावला जी चाट वाले के सामने से गुजरा तो रहा नहीं गया. दुकान पर बैठे चावला जी परेशान दिखे. मैंने पूछा चावला जी होली नजदीक है. शहर के माहौल में उमंग और तरंग बिखरा है,  इस फाग उदासी का राग कैसा?  चावला जी भडक़ गए और मीडिया को जमकर खरी खोटी सुनाई. मैंने पूछा कि आखिर मीडिया से क्या गलती हो गई. तो उन्होंने कहा कि मीडिया वाले नाहक ही किसी से पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं. जब से टीवी पर बाबा का प्रवचन बंद हुआ है,  चाट समोसे और गोलगप्पे की बिक्री कम हो गई है. पहले बाबा भी खुश थे, भक्त भी खुश और हम भी खुश, लेकिन मीडिया को किसी की खुशी देखी नहीं जाती. जब गोलगप्पे खाकर ही प्रॉब्लम सॉल्व हो जाती थी तो इससे क्या दिक्कत है. प्रॉब्लम सॉल्व करने का इससे सस्ता तरीका क्या हो सकता है?

खैर मैं चाट खाकर चावला जी को सांत्वना दिया और आगे निकल लिया. आगे चौक पर बनारस वाले पांडे जी मिल गए. पांडे जी से पूछा कि बाबा की नगरी वाराणसी का समाचार कहिए. पांडे जी ने कहा का कहें भाई इ फागुन का नशा बाबा लोगों पर भी चढ़ गया है. अभी हाल ही में एक विदेशी बाला शांति की तलाश में बनारस आई. एक बाबा के पास पहुंची. बाबा उसे देखकर हिल गए, उनके मन की शांति भंग हो गई.  उसे देखकर बाबा ब्रह्मचारी का दिल धक-धक करने लगा. बाबा ने आखिर बाला से पूछ ही लिया, विल यू मेरी मी? बाला आखिर शांति की तलाश में आई थी कौनो शादी के खातिर तो आई न थी. उसने साफ कह दिया नो नो सॉरी जी. बाबा भडक़ गइन. बाबा ओकर दो चार जमा दिए. सारी तपस्या को पहले ही भंग हो गई थी अब शांति भी भंग हो गई. पुलिस बाबा तो ढूंढ़ रही है.

बाजार से घूम घाम कर कमरे पर लौटा और समाचार देखने लगा तो पता चला कि एक बाबा सरकार से और सरकार बाबा से परेशान है. सूखे की मार झेल रहे एक राज्य की सरकार ने बाबा को होली न खेलने को कहा था लेकिन बाबा हैं कि मानते नहीं. बाबा ने लाखों लीटर पानी से होली खेली और आगे भी कई शहरों में इसी तरह अपने भक्तों पर पानी की बौछार करने का इरादा है. मीडिया पहुंची तो संत के श्री मुख से असंसदीय भाषा निकलने में देर न लगी. मीडिया वालों को बाबा और उनके भक्तों ने लात-घूसों का प्रसाद बांटा. बाबा का कहना है कि होली तो भदवान का अमोल उपहार है. पानी जाया नहीं जाता, इससे मानसिक विषाद दूर होता है.  बाबा को समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार को कैसे समझाए कि होली में रंग न खेलेंगे तो क्या गुल्ली डंडा खेलेंगें.

खैर इस होली में सबसे ज्यादा मस्ती ज्योतिष लोगों की है. हर जगह अपना स्कोप ढूंढ़ ही लेते हैं. कल ही कहीं पढ़ रहा था कि आपकी राशि को कौन सा रंग सूट करेगा. अब ज्यतिषी जी को कौन समझाए कि लोगों की राशि पूछ कर रंग लगाएं या अपनी राशि के मुताबिक लोगों को कहें कि मुझे यही रंग लगाओ दूसरा रंग नहीं लगा सकते. फिर मकर और कुंभ राशि वालों का क्या होगा, जिसके लिए ज्योतिष सूटेबल रंग नीला और काला बता रहे थे. क्या वो नील और कालिख पुतवाता और लोगों को पोतता रहे. खैर भइया ज्यादा कुछ बोल गया तो मांफ करना और बुरा तो हरगिज मत मानना क्योंकि भइया इ होली का मौसम है और होली में बुरा नहीं माना जाता.

फोटो गूगल से साभार

Monday, March 11, 2013

संगम तट और इलाहाबादी समोसे

 
हमारी ट्रेन जब इलाहाबाद जंक्शन पहुंची, रात के ढाई बजे थे. ट्रेन चार घंटे लेट थी. बाहर बारिश हुई थी. मौसम के खराब रहने की संभावना थी. डब्बे से बाहर निकला तो वही प्लेटफॉर्म था जहां मौनी अमावस्या के दिन हादसा हुआ था. सामने एक टूटा-फूटा ओवरब्रिज. मेरे मित्र ने बताया कि इसी पर भगदड़ मची थी. किसी अनिष्ठ की संभावना मन में चलने लगी. इससे पहले मौनी अमावस्या के दिन इलाहाबाद जाने का प्रोग्राम किसी वजह से कैंसिल हो चुका था और इस बार भी कैंसिल होते-होते बचा था. वहां जाने से पहले भी कुछ ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं, जिससे मन में यह शंका घर कर आई थी कि कुंभ यात्रा सफल हो पाएगी या नहीं. कहीं हॉलीवुड मूवी फाइनल डेस्टीनेशन की तरह तो नहीं कि एक बार मौत से बचे दूसरी बार मौत वहीं खींच लाई है.
 ट्रेन लेट हो गई

हमें इलाहाबाद में एक परिचित के यहां जाना था जो झूंसी इलाके में रहते हैं. ट्रेन लेट हो गई थी, इसलिए वो स्टेशन नहीं आए थे और इतनी रात गए वहां जाना भी ठीक नहीं था. हमने कुछ घंटे प्लेटफॉर्म पर ही बीताने का फैसला किया. वहां पुलिस और जवान मुस्तैदी से तैनात थे. प्लेटफॉर्म पर जहां-तहां तीर्थ यात्री सोए हुए थे. वहां बैठने की भी मुश्किल से जगह मिली. सुबह पांच बजे हम झूंसी के लिए निकले. हमें सिटी का आइडिया नहीं था. कोई ऑटो वहां के लिए नहीं मिल रहा था. रिजर्व में चार सौ रुपये तक की मांग हो रही थी. हमने रिक्शा किया, जिसने दो सौ रुपये वसूले.
जगमगाता कुंभ
गंगा पुल से गुजरते वक्त वहां का नजार विहंगम था. दोनों छोर पर जहां तक नजर जा सकती थी वहां जगमगाता कुंभ क्षेत्र नजर आ रहा था. अलग-अलग अखाड़ों और साधु-संन्यासियों के टेंट लगे थे. कई जगह टेंट उखड़ भी रहे थे, जिससे लग रहा था कुंभ अपने चरम पर पहुंच के अब ढलान की ओर है. परिचित के घर फ्रेश होकर हम लोग स्नान के लिए निकले. रास्ते में कुछ देर के लिए बारिश भी शुरू हुई, लेकिन फिर मौसम साफ हो गया. चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाकर्मी तैनात दिखे. लेकिन सिक्योरिटी चेक करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं दिखी. मन में आया अगर कोई आतंकवादी घुस आया तो क्या होगा?

चेहरे पर मुस्कुराहट

संगम पर गंदगी की वजह लोग भी थे जो कहीं भी थूक रहे थे या कहीं भी अपना प्रेशर रीलिज कर रहे थे. लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि वो पुण्य कमाने आए हैं ना कि पाप बटोरने. संगम तट पर स्नान किया तो पानी में पूजा के फूल, दीये, नारियल आदि तैर रहे थे. किनारे कोई पूजा कर दीया और अगरबत्ती जलाकर छोड़ गया था तो कोई श्राद्धकर्म कर अन्न बिखेर गया था. कुछ विदेशी भी दिखे जो वहीं स्नान कर भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे दिखे. उस भीड़ और गंदगी के बावजूद उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी. महिलाओं के लिए कपड़े चेंज करने का वहां कोई इंतजाम नहीं था. लोग ग्रुप में आते कोई नहाने जाता तो कोई सामान की रखवाली करता, फिर वहीं कपड़े बदलना और कपड़े सुखाना इससे वहां अनावश्यक भीड़ इकट्ठा हो रही थी. स्नान के बाद हनुमान जी के दर्शन किया. कहते है कि यहां हनुमान जी विश्राम करते हैं. यहां भी भीड़ ज्यादा थी. न तो सामान रखने का कोई प्रबंध था और न ही चप्पल रखने का. लोग मूर्ति पर फूल और पैसे फेंक रहे थे जिससे हनुमान जी की प्रतिमा ढंक गई थी. मन में आया कि लोग उन्हें चैन से सोने भी नहीं देते. कुंभ क्षेत्र का विस्तार इतना अधिक है कि वहां से लौटने में हमें चार घंटे लग गए और शायद यही वजह है कि करोड़ो लोग उस एरिया में यूं ही समा जाते हैं.  
पुलिस की बैरिकेटिंग

शाम में एक बार फिर हम कुछ मंदिरों के दर्शन के लिए निकले जो कुंभ क्षेत्र के आसपास ही थे. लेकिन न तो कोई ऑटो मिल रहा था और रिक्शे वाले भी दो किलोमीटर के सौ रुपये मांग रहे थे. हम पैदल ही गए. वेणी माधव, नरसिंह और अलोपी देवी का दर्शन किया. ऑटो या रिक्शा नहीं मिलने के कारण हमलोग ललिता देवी के दर्शन नहीं कर पाए. फिर दारागंज की एक गली में हमलोगों ने इलाहाबाद की कचौड़ी सब्जी, इलाहाबादी समोसे का लुत्फ उठाया, जो लाजवाब था. दुकानदार का पूरा परिवार कचौड़ी, समोसा और लौंगलता बनाने में लगा था. अगले दिन माघी पूर्णिमा का प्रमुख स्नान था. शाम से पुलिस की बैरिकेटिंग शुरू हो गई थी. पता चला कि रात से ही वाहनों की एंट्री बंद हो जाएगी. हमें सुबह स्नान कर दिल्ली के लिए ट्रेन पकडऩी थी.
लौटकर राहत

सुबह हम लोग छह बजे स्नान के लिए निकले. नहाकर निकलने में नौ बज चुके थे. मुझे दिल्ली के लिए नार्थ ईस्ट या सीमांचल ट्रेन पकडऩी थी. रिजर्वेशन नहीं था. स्टेशन तक जाना बड़ा मुश्किल लग रहा था. सडक़ों पर पैर रखने की भी जगह नहीं थी. एक रिक्शा मिला वो भी सिर्फ गंगा का पुल पार करने के सौ रुपये लिए. जनसैलाब सड़कों पर रेंग रहा था. आने जाने का कोई साधन नजर नहीं आ रहा था. थोड़ा टेंशन होने लगा. खुद को कोसने भी लगा कि क्यों इस दिन आया. पहले दिन से ही बहुत पदयात्रा हो चुकी थी, इसलिए और दस किलोमीटर पैदल चलने की स्थिति में नहीं थे. कानपुर के लिए बस दिखी हमने स्टेशन जाने का फैसला टाला और बस से कानपुर निकल गए. कानपुर पहुंचकर राहत मिली. वहां से ट्रेन से हम अपने साथी के संग सकुशल दिल्ली लौट आए.

कुंभ जाने से पहले

कुंभ के लिए जाने से पहले कई निगेटिव बातें सुनने को मिल रही थी. जैसे गंगा का पानी नहाने लायक नहीं है. वहां नहाने से स्कीन डिजीज हो सकती है. वहां महामारी फैलने का खतरा है, कुछ हादसे भी हो चुके थे, कई लोग वहां जाने का प्रोग्र्राम कैंसिल कर चुके थे. लेकिन उस अनुभूति को जीने की इच्छा थी. आखिर बारह वर्ष के अंतराल पर आयोजन होता है और देश-विदेश से लोग आते हैं. इस ग्रेट ओकेजन को तो फील करना ही चाहिए.

अगली बार मिस ना करें

सरकार और प्रशासन व्यवस्था को और बेहतर करे. आखिर कुंभ से सिर्फ एक राज्य ही नहीं बल्कि देश की छवि देश और दुनिया में बनती या बिगड़ती है. अगर सरकार कुंभ में सही व्यवस्था नहीं कर सकती है तो मेले का आयोजन ही न करे. लो आखिर क्यों इतने विज्ञापण देती है. कुंभ क्षेत्र में फूल-पत्ती, नारियल, पूजा या श्राद्धकर्म पर बैन लगाना चाहिए. कुंभ के दौरान केवल स्नान ही करने की इजाजत हो, जिससे गंदगी ना फैले. साफ अस्थाई शौचालय की प्रॉपर व्यवस्था हो. लोगों को भी समझना होगा वो वहां अच्छे उद्देश्य से गए हैं वहां गंदगी ना फैलाएं, महिलाओं के लिए कपड़े बदलने के लिए व्यवस्था होनी चाहिए. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की प्रॉपर व्यवस्था होनी चाहिए. भले ही वहां थोड़ी बहुत परेशानी हुई हो लेकिन कुंभ का अनुभव लेना अच्छा लगा. आखिर तीर्थयात्रा में थोड़ी परेशानी तो होती ही है. इलाहाबाद के महाकुंभ 2013 का तो समापन हो गया. अब नासिक और उज्जैन का बारी है. अगर आपने इस बार मिस कर दिया तो अगली बार ना करे.
 
 
 

Wednesday, August 15, 2012

बड़ी समस्याओं के बीच छोटे मुद्दों की तलाश


देश को आजाद हुए 65 साल हो चुके हैं. इन 65 सालों में देश में काफी तरक्की हुई है, लेकिन देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी जैसी बड़ी समस्याएं भी हैं, जिनसे देश जूझ रहा है. इन मुद्दों पर बड़ी चर्चा होती है, शोर मचता है और आंदोलन भी होता है, लेकिन इन्ही बड़े मुद्दों के बीच कई छोटे-छोटे मुद्दे हैं जो दब जाते हैं. इन पर इतना शोर नहीं मचता न ही हमारा ध्यान जाता है. आजादी के इन सालों में हम बड़ी चीज पाने के लिए कई छोटी चीज खोते जा रहे है. इनमें कुछ ऐसे हैं जो हमारे परिवार समाज और हमारी यादों से जुड़े हैं. इन्हें ही तलाशने का यह एक प्रयास है.
उधार की जिंदगी
बेहतर जिंदगी की चाह में हम न जाने कितने ही तरह के कर्ज से घिरते जा रहे हैं. युवावस्था में करियर बनाने की चाह में एजुकेशन लोन, फिर नौकरी लगी तो तमाम तरह की सुख सविधा जुटाने की चाह में कार लोन, होम लोन और न जाने कौन-कौन से लोन.  अगर लोन ले लिया तो इस बात का भी डर रहता है कि अगर नौकरी छूट गई तो क्या होगा? लोन देते समय तो कंपनियां मीठी बातें करती हैं लेकिन अगर लोन की किश्त न दे पाए तो इनका सुर बदल जाता है. कर्ज न चुका पाने के कारण कई लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं. इस तरह जिंदगी कर्ज के बोझ तले दबती चली जाती है.

छिनता बचपन
बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है. पेरेंट्स के अपेक्षाओं और भारी बस्ते के बोझ तले बच्चे कब बड़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता. एक तरफ तो ऐसे बच्चे हैं जिन्हें बाल मजदूरी की आग में झोंक दिया जाता है तो दूसरी तरफ ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें खेलने के लिए संगी-साथी नहीं मिलता. बढ़ते एकल परिवार का चलन और समाज से लोगों का कटना भी इसकी वजह है. बच्चों में अकेलापन बढ़ता जा रहा है.

परिवार और समाज का टूटना
 संयुक्त परिवार की प्रथा समाप्त होती जा रही है. एकल परिवार का चलन बढ़ता जा रहा है. लोग अपने परिवार तक ही सिमट कर रह गए हैं, अपने पड़ोसियों के बारे में उन्हें पता नहीं रहता. पहले मैं अपने गांव में देखता था कि कोई न कोई नाते रिश्तेदार का आना-जाना लगा ही रहता था लेकिन अब किसी फंक्शन में भी कम लोग ही आ पाते हैं.

सम्मान भूलते जा रहे हैं
आज के जेनरेशन में बड़ों के प्रति सम्मान खत्म होता जा रहा है. लोग अपने बुजुर्गों से बेअदबी से बात करते हैं. उनके कुछ कहे का दो टूक जवाब दे दिया जाता है, जबकि पहले जवाब देना तो दूर बड़ों से आंख मिलाना भी मुश्किल था. बड़ों के प्रति अशिष्ट भाषा का प्रयोग भी बढ़ रहा हैय

कहानियां भूल गए
न्यूक्लियर फैमिली के चलन के बीच दादा-दादी की कहानियां कहीं खो गईं. बिजी लाइफ में बच्चों को कहानियां सुनाने वाला कोई नहीं है. पुराने कहानी के पात्रों की जगह पहले चाचा चौधरी, नागराज, ध्रुव, डोगा जैसे कहानी के पात्रों ने लिया और अब उनकी जगह कार्टून के कई कैरेक्टर आ गए हैं. ऐसे में ये कहानियां कहीं विलुप्त न हो जाए.

पारंपरिक खेल भूल गए
वीडियो गेम के प्रति बच्चों में गजब का रुझान है. पुराने खेलों जहां बच्चों में में फिटनेस बनाती थी और उनमें लीडरशिप जैसे गुण विकसित होते थे, जबकि विडियो गेम से बच्चों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है. इन खेलों के न खेलने का कारण यह भी है कि बच्चों को खेलने के लिए साथी नहीं मिलता. लुका-छिपी, पिट्टो/बिट्टो, विष-अमृत जैसे कई खेल हमलोग बचपन में खेला करते थे जो आज के बच्चे नहीं खेलते. इन खेलों का कोई रुल बुक नहीं होता. इन्हे बच्चे एक-दूसरे से ही सीखते हैं. ऐसे में ये ट्रिडशनल गेम कहीं भूला न दिए जाएं.

पलायन आखिर कब तक
पलायन के चलते जहां शहर पर बोझ बढ़ता जा रहा है, वहीं गांव खाली होते जा रहे हैं. बेहतर शिक्षा और भविष्य संवारने की चाह में लोग बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. बचपन में हम जिन दोस्तों के साथ खेलकर बड़े हुए, गांव जाने पर वो नहीं मिलते. गांव बड़ा सूना लगता है.

गायब हो गई चिड़ियों की चहक
बचपन में जिन चिड़ियों को देखते और उनकी चहचहाहट को सुनकर बड़े हुए वो चिड़ियां अब दिखाई नहीं देती. मोबाइल टावरों के रेडिएशन, बढ़ते कंक्रीट के जंगल खाने में कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण चिड़ियों की संख्या घटती जा रही है. जब चिड़ियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाती हैं तो सरकार को उनकी याद आती है. जैसा कि दिल्ली में गोरैय्या को राजकीय पक्षी घोषित किया गया है.

नीला आसमां खो गया
यह समस्या मेट्रो सिटीज की है. यहां बढ़ते प्रदूषण के कारण आसमान का रंग नीला नहीं बल्कि पीला दिखाई देता है.  बचपन के दिनों में गर्मी की रातों में तारों को निहारा करते थे, उनके कई नाम होते थे, उनकी कहानियां होती थीं लेकिन सब खो गया.