Tuesday, November 30, 2010

जनता की जीत

आजकल बरबस एक गाना मेरे जुबान पर आ जाता, ‘जग सूना-सूना लागे जग सूना-सूना लागे छन से जो टूटे कोई सपना’। ये गाना लालू और पासवान जी के लिए भी सही है। भैंस के सिंग से सीएम की सीट पर बैठने वाले लालू जी का सपना एक दिन प्रधानमंत्री बनने का भी था। इस चुनाव में वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। बिहार विधानसभा चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण थे। जहां लालू और पासवान के लिए चुनाव जीत कर राजनीतिक वनवास से वापसी करने का मौका था वही हार का मतलब था राजनीतिक जीवन खत्म होना। नीतीश के लिए भी हार का मतलब होता राजनीतिक जीवन का अंत। क्योंकि तीनों ही नेता 65 वर्ष से ऊपर के हैं और पांच साल बाद 70 के पार हो जाएंगे। इस उम्र में वो ऊर्जा नहीं रह जाती है जो कि संघर्ष के दिनों में होती है। फिर हार का मतलब होता है कि सारे राजनीतिक और जाति समीकरण का ध्वस्त होना। जैसा कि इन चुनावों में हुआ भी। सारे के सारे समीकरण धरे के धरे रह गए लालू को यादवों ने और पासवान को दलित मतदाताओं ने नकार दिया, जनता ने परिवारवाद, जातिवाद और बाहुबलियों को नकार दिया, राहुल का कोई जादू नहीं चला दूसरी ओर मुसलमानों ने भाजपा को भी वोट दे दिया जिसका भूत उन्हें दिखाया जाता था। इन चुनावों में सबसे अधिक फायदा भाजपा को ही तो हुआ।

आखिर ऐसा क्यों हो गया? इन नतीजों के क्या मायने हैं? आगे बिहार और देश की राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? 80 दशक के अंत और 90 दशक के पूर्वार्ध में देश का राजनीतिक मिजाज कुछ अलग ही हुआ करता था। एगर एक तरीके से कहें तो कांग्रेस अवसान पर थी,जेपी आंदोलन से तपे-तपाए छात्र नेता बिहार के राजनीतिक आकाश पर चमकने के लिए तैयार थे। मंडल और कमंडल की राजनीति उठान पर थी, वर्षों से दबाए गए लोगों की चेतना अब ज्वालामुखी की तरह फटने के लिए तैयार थी। इसी समय लालू यादव के रूप में एक ऐसे नेता का उदय हुआ जो पिछड़ों और गरीबों के लिए जननायक के रूप में उभरा। उसने वर्षों से समाज में सताए लोगों को जुबान दी। समाजिक न्याय का नया नारा बिहार की राजनीति में इतना अहम हो गया कि इसके आगे सारे नारे फिके हो गए। जनता ने लालू को इसका इनाम सर-आंखों पर बिठा के दिया। लेकिन सत्ता का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि यह तभी उतरता है जब खोने के लिए कुछ भी नहीं बचता। लालू चापलूसों से घिरते गए, लालू चालिसा लिखने वाले और लालू के लिए कबाब बनाने वाले लोग पुरस्कारों से नवाजे जाते रहे। एक तरफ देश उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के रथ पर सवार होकर आगे बढ़ रहा था तो दूसरी और लालू बिहार के विकास का चक्का को रोके हुए थे। लालू एक विदूषक ही बन कर रह गए। लालू की एक बड़ी गलती यह भी रही कि उन्होंने जनता को अपना जागीर समझ लिया। पहले अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाया फिर इस चुनाव में अपने बेटे को भी आगे करने का प्रयास किया। ठीक ही तो कहते हैं कि जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है। लालू-राबड़ी राज में खुलेआम गुंडागर्दी, अपहरण, जातीय नरसंहार क्या-नहीं हुआ, लेकिन इससे बेफिक्र लालू अपनी ही वंशी बजा रहे थे। आखिर सिर्फ खोखले वादों से ही तो जनता का पेट नहीं भरता।

पासवान को ही लें कभी हाजीपुर से रिकार्ड मतों से जीतने वाले पासवान पिछले लोकसभा चुनाव में हार गए। पासवान जी एक राष्ट्रीय नेता से क्षेत्रीय नेता बन कर रह गए। पासवान ने भी अपने बंधु-बांधवों को आगे बढ़ाया। उनकी छवि एक अवसरवादी की भी बन गई जो एनडीए सरकार में भी मंत्री बनते हैं और यूपीए की सरकार में भी। 2005 के मार्च में रामविलास विलास पासवान लालू के खिलाफ चुनाव अभियान किया था। चुनाव परिणाम आने के बाद सत्ता की चाबी उनके पास ही थी वो जिसे चाहते उस दल की सरकार बन सकती थी। लेकिन वो एक झूठी जिद पर अड़ गए कि मुख्यमंत्री मुस्लिम ही होना चाहिए जबकि उनके पार्टी से भी एक भी मुस्लिम चुन कर नहीं आया था। इस जिद की वजह से बिहार को एक बार फिर चुनाव का सामना करना पड़ा था और इसकी बड़ी कीमत पासवान ने चुकाई थी लेकिन पासवान ने अपनी गलती से कोई सबक नहीं लिया और अगले लोकसभा चुनाव में उसी लालू से गठबंधन कर बैठे जिसे हटाने के लिए उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा था। परिणाम यह हुआ कि अपने ही अखाड़े में अभी तक अजेय पासवान चारो खाने चित हो गए। अपने अखाड़े में पटकनी से चोट भी अधिक लगता है लेकिन पासवान यहां भी नहीं संभले। गद्दी की चाहत उन्हें इतनी अधिक थी कि लालू के सहयोग से वह राज्य सभा पहुंच गए। उन्होंने यह भी दिखाने की कोशीश की कि वह केंद्र में मंत्री पद का त्याग कर रहे हैं जबकि उन्हें केंद्र में कौन पूछने वाला था। बिहार में जो बयार बह रही थी उसके साथ होने के बजाय वह उसका रास्ता रोकने के लिए खड़े हो गए। फिर क्या था बयार जब चक्रवात का रूप ले लिया तो अपने साथ सभी को उड़ाते ले गई।

आजादी के बाद से कुछ मौकों को छोड़ दें तो 1989 तक बिहार में कांग्रेस की ही सरकार रही लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने किसी सरकार को स्थिर नहीं होने दिया। किसी भी देश या राज्य के विकास के लिए राजनीतिक स्थिरता एक बड़ी शर्त होती है। उस समय केंद्र और राज्य में कांग्रेस की ही सरकार थी लेकिन विकास की दौड़ से बिहार पिछड़ता रहा। वर्षों से दबी जातीय-सामाजिक चेतना अब अंगड़ाई ले रही थी। जनता बदलाव चाहती थी और हुआ भी वही। इस समय केंद्र में भी कांग्रेस की स्थिति कमजोर थी। कांग्रेस की नीति रही है कि किसी भी नेता का कद बढ़ रहा हो तो उसे काट दो। कोई पेड़ तब तक मजबूती से टिका रह सकता है जब उसके नीचे घास-फूस और छोटे-छोटे पेंड़-पौधे भी रहे। इससे उस पेंड़ की मिट्टी सुरक्षित रहती है और जड़ मजबूत होता है लेकिन गांधी परिवार ने अपने सामने किसी को पनपने ही नहीं दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस रूपी बरगद गिरने लगी। कांग्रेस ने लालू का सहयोग किया, 2005 में एनडीए की सरकार को रोकने के लिए विधानसभा भंग करवा दी गई। इसका असर तो होना ही था।

इस बार के चुनाव में दो गठबंधन आमने-सामने थे और कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ रही थी। कांग्रेस का अकेले चुनाव लड़ने का फैसला तो सही था लेकिन उसने समय रहते इसकी तैयारी नहीं की कांग्रेस में राजद और अन्य पार्टियों से निकले बाहुबलियों को टिकट दे दिया गया। समय रहते उम्मीदवारों के नाम की घोषणा नहीं की गई जिससे वो सही से चुनाव प्रचार नहीं कर पाए। चुनाव से पहले मुसलमानों और अगड़ी जातियों का रूझान कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा था लेकिन कांग्रेस इसका फायदा नहीं उठा पाई। कांग्रेस की छवि वोटकटवा की ही हो कर रह गई। दूसरी ओर लोगों को लगा कि कांग्रेस अगर कुछ सीट जीत भी जाती है तो वह फिर से लालू का समर्थन कर सकती है और अगर नहीं जीती तो वोट बंटने के कारण लालू को फायदा हो सकता है। नीतीश ने भी लोगों को लालू के जंगलराज की वापसी का भय दिखाया। इससे फिर से लोग नीतीश के पक्ष में लामबंद हो गए।
ऐसा नहीं है कि नीतीश ने बिहार का की कायाकल्प कर दिया। बिहार बाढ़ और सुखाड़ से परेशान है, राज्य में अभी भी निवेश नहीं हुआ है न कोई फैक्ट्री लगी है। बंद पड़े चीनी मिल भी नहीं खुले हैं। बिजली की हालत खराब है। शिक्षा के क्षेत्र में भले ही स्कूलों का स्तर सुधरा है, लड़कियों को साईकिल दी जा रही है इससे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है लेकिन सिर्फ नंबर के आधार पर शिक्षकों की बहाली से शिक्षा का स्तर गिरा है। लेकिन बिहार के लोगों में एक फिल गुड़ फैक्टर काम कर रहा है। जहां वर्षों से कोई विकास न हो वहां थोड़ा सा भी विकास होना बड़ा लगता है। अपराध पर लगाम लगा है और लोग खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इसलिए जनता नीतीश को एक और मौका देना चाहती थी। दूसरे नीतीश ने महिलाओं के लिए योजनाएं चलाकर और उन्हें आरक्षण देकर , भागलपुर दंगों के दोषियों को सजा दिलवाकर अपने समर्थकों की संख्या बढ़वा ली। साथ ही महादलित कार्ड खेलकर विरोधियों के मतों में भी सेंध लगा दिया।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि इतनी बड़ी सफलता के बाद आगे क्या होगा? बिहार में विपक्ष को ऐसी पटकनी मिली है कि वह उठने के बजाय हो सकता है कि मर ही न जाए। ऐसी स्थिति में क्या होगा? लोकतंत्र की सफलता के लिए मजबूत विपक्ष का होना भी बेहद जरूरी है। नहीं तो शासक तो तानाशाह बनने में देर नहीं लगती। नीतीश कुमार से न बनने के कारण पहले भी कई नेता उनसे अलग हो चुके हैं। भाजपा जेडीयू की छाया मात्र बन कर रह गई है। सरकार में अफसरशाही बढ़ी है और अफसरों के आगे मंत्रियों की भी कुछ नहीं चलती। जेडीयू परिस्कृत राजद बन कर रह गया है क्योंकि राजद से बहुत सारे नेता अपनी वफादारी त्याग कर नीतीश के साथ हो गए। जो लोग पहले लालू के जंगल राज के सिपाही थे वही लोग अब नीतीश के सुसाशन के रखवाले हो गए। बिहार में अपराध पर लगाम तो लगा लेकिन उन्हीं आपरधिक तत्वों पर प्रशासन का कोड़ा चला जिन्होंने नीतीश के आगे समर्पन कर दिया।

नीतीश से लिए इस अप्रत्याशित चुनाव परिणाम के बाद उम्मीदें और भी बढ़ गई हैं। पहले तो तुलना पंद्रह साल बनाम पांच साल का था। अब तो उनके पहले कार्यकाल के काम से ही तुलना की जाएगी। विकास और सुशासन के जिस नारे के साथ उन्होंने सत्ता में जो वापसी की है उसके नए मानक बनाने होंगे और उनपर खरा उतरना होगा। क्योंकि जनता अगर किसी को पलकों पर बिठाती है तो उसे धूल में मिलाते भी देर नहीं लगती। साथ ही बिहार को एक ऐसे युवा नेता की भी तलाश होगी जो नीतीश का विकल्प बनकर बिहार को नए युग में ले जा सके।

2 comments:

  1. जो बिहार में हुआ है काश यह ओडिशा में भी हो जाए. वहाँ के गरीब तो बोलते भी नहीं हैं. इतनी अच्छी पोस्ट के लिए बधाई और आभार.

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  2. बिहार के चुनाव परिणामों ने बता दिया की जनता जागरूक है , और धर्म तथा जाती को नहीं बल्कि विकास को आधार बनाती हुई।

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