पिछले दिनों जब दिल्ली बरसात में पानी-पानी हो रही ठीक उसी समय बिहार में लोग पानी-पानी चिल्ला रहे थे। दो साल पहले की ओर लौटें तो इसी समय बिहार बाढ़ से बेहाल था। पिछले साल भी मानसून दगा दे गया था। पिछले कुछ सालों में अगर देखें तो मानसून का रूठना जारी है, कभी तो बहुत ही ज्यादा बारिश और कभी कुछ भी नहीं। जिस इलाके में सूखा रहता था वहां बाढ़ आ जाती है और जहां बाढ़ की समस्या रहती थी वहां सूखा पड़ने लगा है।
कुछ साल पहले मुंबई में इतनी बारिश हुई कि चेरापूंजी का रिकार्ड टूट गया। कुछ साल पहले राजस्थान को भी बाढ़ की तबाही से दो-चार होना पड़ा था। दिल्ली में वर्षों बाद इतनी बारिश हुई है। वहीं बिहार में सूखा पड़ा है। अगर गौर करें तो लगता है कि मानसून का दिशा ही बदल गई है। अब इसका कारण अल निनो हो या ला निनो या फिर ग्लोबल वार्मिंग समय रहते अगर इस समस्या का हल नहीं ढूंढ़ा गया तो पानी के लिए लोग खून बहाएंगे।
दिल्ली जैसे शहरों में भले ही कितनी भी बारिश हुई हो लेकिन इससे भूजल का स्तर नहीं बढ़ा है। गाजियाबाद में एक तरफ लोग आसमान से बरसने वाली पानी से परेशान थे तो दूसरी ओर पीने के पानी के लिए भी तरस रहे थे। बाढ़ और सूखा जैसे आपदा प्रकृति के साथ-साथ मानव निर्मित भी होते जा रहे हैं। अत्यधिक शहरीकरण के कारण पुरानी जल प्रणालियां जैसे झील, तालाब आदि नष्ट होती जा रही हैं। मुंबई के जलमग्न होने की एक वजह मीठी नदी के जल मार्ग के साथ छेड़-छाड़ थी। नदियों या नहरों में गाद जमा होती रहती है लेकिन उसकी सफाई नहीं हो पाती है। आखिर ऐसे में बारिश का पानी कहां जाए। वह तो तबाही मचाएगी ही। पोखरों या झीलों को पाटकर हमने उस पर ऊंचे-ऊंचे महल-दोमहले खड़ा कर दिए हैं। इससे बरसात के पानी का सही सदुपयोग नहीं हो पाता है।
अब वक्त आ गया है कि हम पानी का प्रबंधन करना सीखें। बाढ़ से बचने के लिए पहले तो नदी-नाले और नहरों की सफाई तो करवाई ही जाए दूसरी ओर बरसात के पानी के सदुपयोग के लिए पोखरों और झीलों की भी समय-समय पर सफाई हो साथ ही रेन वाटर हारवेस्टिंग और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए वाटर रिफिलिंग जैसे उपाय करने होंगे। इसके लिए बहुत अधिक तामझाम करने की भी जरूरत नहीं है बस छतो से नीचे गिरने वाले पानी को पाइप के जरिए कुओं, हैंडपंपों या सॉकपीट के जरिए जमीन के अंदर पहुंचाना है। मुसीबत के समय सरकार की ओर मदद की आस लगाने के बजाय अगर हम खुद ये सब उपाय अपनाएं तो पीने के पानी की समस्या नहीं होगी। सरकार को भी चाहिए कि वह कुछ ठोस पहल करे। नदियों को जोड़ने की जो परियोजना चल रही है उसे समय से पूरा करे साथ ही ऐसे उपाय किए जाएं कि बाढ़ वाले इसाके के पानी का इस्तेमाल सूखा ग्रस्त इलाकों में किया जा सके। आपदा के समय करोड़ों के राहत पैकेज देने से अच्छा है कि आपदा आए ही नहीं इसके लिए समय रहते उपाए किए जाएं।
कुछ साल पहले मुंबई में इतनी बारिश हुई कि चेरापूंजी का रिकार्ड टूट गया। कुछ साल पहले राजस्थान को भी बाढ़ की तबाही से दो-चार होना पड़ा था। दिल्ली में वर्षों बाद इतनी बारिश हुई है। वहीं बिहार में सूखा पड़ा है। अगर गौर करें तो लगता है कि मानसून का दिशा ही बदल गई है। अब इसका कारण अल निनो हो या ला निनो या फिर ग्लोबल वार्मिंग समय रहते अगर इस समस्या का हल नहीं ढूंढ़ा गया तो पानी के लिए लोग खून बहाएंगे।
दिल्ली जैसे शहरों में भले ही कितनी भी बारिश हुई हो लेकिन इससे भूजल का स्तर नहीं बढ़ा है। गाजियाबाद में एक तरफ लोग आसमान से बरसने वाली पानी से परेशान थे तो दूसरी ओर पीने के पानी के लिए भी तरस रहे थे। बाढ़ और सूखा जैसे आपदा प्रकृति के साथ-साथ मानव निर्मित भी होते जा रहे हैं। अत्यधिक शहरीकरण के कारण पुरानी जल प्रणालियां जैसे झील, तालाब आदि नष्ट होती जा रही हैं। मुंबई के जलमग्न होने की एक वजह मीठी नदी के जल मार्ग के साथ छेड़-छाड़ थी। नदियों या नहरों में गाद जमा होती रहती है लेकिन उसकी सफाई नहीं हो पाती है। आखिर ऐसे में बारिश का पानी कहां जाए। वह तो तबाही मचाएगी ही। पोखरों या झीलों को पाटकर हमने उस पर ऊंचे-ऊंचे महल-दोमहले खड़ा कर दिए हैं। इससे बरसात के पानी का सही सदुपयोग नहीं हो पाता है।
अब वक्त आ गया है कि हम पानी का प्रबंधन करना सीखें। बाढ़ से बचने के लिए पहले तो नदी-नाले और नहरों की सफाई तो करवाई ही जाए दूसरी ओर बरसात के पानी के सदुपयोग के लिए पोखरों और झीलों की भी समय-समय पर सफाई हो साथ ही रेन वाटर हारवेस्टिंग और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए वाटर रिफिलिंग जैसे उपाय करने होंगे। इसके लिए बहुत अधिक तामझाम करने की भी जरूरत नहीं है बस छतो से नीचे गिरने वाले पानी को पाइप के जरिए कुओं, हैंडपंपों या सॉकपीट के जरिए जमीन के अंदर पहुंचाना है। मुसीबत के समय सरकार की ओर मदद की आस लगाने के बजाय अगर हम खुद ये सब उपाय अपनाएं तो पीने के पानी की समस्या नहीं होगी। सरकार को भी चाहिए कि वह कुछ ठोस पहल करे। नदियों को जोड़ने की जो परियोजना चल रही है उसे समय से पूरा करे साथ ही ऐसे उपाय किए जाएं कि बाढ़ वाले इसाके के पानी का इस्तेमाल सूखा ग्रस्त इलाकों में किया जा सके। आपदा के समय करोड़ों के राहत पैकेज देने से अच्छा है कि आपदा आए ही नहीं इसके लिए समय रहते उपाए किए जाएं।
पानी को लेकर चारो तरफ शोर है ........पानी न बरसे तो हंगामा ,पानी बरसे तो मुश्किल है ..कही राजनीति में नेता पानी पानी हो रहे है तो कही पानी पर राजनीति हो रही है ..........सही ही है बिन पानी सब सून
ReplyDeleteसही फ़रमाया है आपने .पिछले दिनों लेह में हुई दुर्गति भी इसी इसी सोच का परिणाम है . हमारी जीवन शैली में हों रहे बदलाव ने पर्यावरण को खूब क्षति पहुंचाई है. सिर्फ सरकारी स्तर पर ही नहीं हम सबों को इस के लिए एक जुट होना होगा.
ReplyDeleteपानी के उचित प्रबंधन के जो उपाय इस आलेख में बताये गए है, यदि उन पर अमल किया जाये तो कम से कम मानव निर्मित पानी से सम्बंधित सभी परेशानियों से छुटकारा पाया जा सकता है.. बहुत अच्छा लिखा है...
ReplyDeleteआपने सही सुझाव दिया है. काश ईमानदार लोग इसे पढ़ें. यह देख कर बड़ी तकलीफ होती है कि ग्रामीण अंचल में स्वाभाविक जलग्रहण क्षेत्रों (तालाबों, पोखरों आदि) को धर्मस्थलों में तब्दील करके बहुत नुकसान पहुँचाया गया है. जहाँ पानी चाहिए था वहाँ धर्म के नाम पर ज़मीन हड़पी जा रही है. यह पानी की उपलब्धता का दूसरा पक्ष है.
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