Tuesday, June 29, 2010

दिग्विजय सिंह का जाना और बिहार की वर्तमान राजनीति



24 जून को दोपहर में मेरे भाई का फोन आया कि दिग्विजय बाबू नहीं रहे। लंदन के एक अस्पताल में हफ्ते भर जिंदगी और मौत से जूझते हुए जिंदगी आखिर हार ही गई। कुछ पल के लिए तो जैसे सांस ही थम गया। यकीन ही नहीं हो रहा था कि दिग्विजय जी इस तरह हमें छोड़कर जा सकते हैं। कुछ दृश्य फ्लैश बैक की तरह आंखों के सामने आने लगे।
दिग्विजय जी को मैंने पहली बार 1991 में देखा था, जब वह अपने चुनावी प्रचार के सिलसिले में मेरे गांव आए थे। उनके व्यक्तित्व और उनके भाषण की शैली ने मुझे खासा प्रभावित किया था। मैं उस छोटा था। मैंने किसी तरह उनके प्रचार वाला स्टीकर जुगाड़ किया था, जो आज भी मेरे किसी किताब में छुपा होगा।
हालांकि उस चुनाव में दिग्विजय जी चौथे नंबर पर रहे। लेकिन इस हार से वह कहां हारने वाले थे। उन्होंने जनता से संपर्क बनाए रखा। बराबर इलाके का दौरा करते रहे। फिर जब 1996 में लोकसभा का चुनाव हुआ तो समता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़कर बहुत ही कम मतों के अंतर से हार गए। लेकिन वह कहां थकने वाले थे। जुझारूपन तो उनके रग-रग में बसा हुआ था। फिर 1998 और 1999 में वह लोकसभा का चुनाव जीतकर आए। 1999-2004 में वह एनडीए सरकार में वह रेलवे, उद्योग और विदेश मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे। उनके ही प्रयास से बांका आज रेलवे के मानचित्र पर आ पाया है। रेल मंत्री रहते हुए वह देश में बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते थे। लेकिन वह कम समय तक ही रेलवे में रह पाए। यह सपना आज भी सपने की ही तरह है।
पिछले लोकसभा चुनाव में जब उन्हें जेडीयू से टिकट नहीं मिला तो उन्होंने बगावत कर निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा। क्षेत्र की जनता ने भी इसे अपने स्वाभिमान पर लिया और उन्हें चुनकर भेजा। उनकी स्वच्छ छवि, देशी-विदेशी मामलों पर उनकी पकड़ और इलाके के विकास का काम उन्हें लोकप्रिय बनाता था। ऐसा नेता पूरे क्षेत्र में नहीं था या यूं कहें कि बिहार में कम ही नेता हैं जिनमें इतने सारे गुण एक साथ मौजूद हों।
बिहार में विधान सभा के चुनाव इसी साल होने वाले हैं। बिहार में इस समय राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति बनने जा रही है। कांग्रेस की हालत नाजुक है, राजद के 15 साल के शासन को लोगों ने देख लिया है, राम विलास पासवान की 2005 के चुनाव में हठधर्मिता की वजह ने बिहार पर एक बार फिर चुनाव थोपा। इसलिए अगले विधान सभा और लोकसभा चुनावों में जनता ने उन्हें नकार दिया। सत्ता सुख भोगने के बाद भाजपा की हालत तो और भी खराब हो जाती है, उसमें संघर्ष की क्षमता खत्म हो जाती है। वह किसी भी तरह सत्ता में बनी रहना चाहती है चाहे इसके लिए कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। इसी का खामियाजा उसे यू.पी. में उठाना पड़ा। वहां उसे ऐसी पटकनी मिली कि वह अभी तक ठीक से संभल नहीं पाई है। इसी तरह उसे डीएमके, एआईएडीएमके,बीजद आदि दलों ने समय-समय पर ठेंगा दिखाया। अभी हाल ही में भाजपा और नीतीश कुमार में जो तकरार हुआ, भाजपा ने एक तरह से वहां आत्मसमर्पण ही कर दिया है। यह तो एक चेतावनी भर है, अगर नीतीश कुमार अकेले दम पर जैसी की उम्मीद भी है, बहुमत पाते हैं या बहुमत के करीब पहुंचते हैं तो उन्हें भाजपा को दरकिनार करने में जरा भी देरी नहीं लगेगी।
यह बात सही है कि नितीश कुमार ने बिहार के विकास के लिए काम किया है। बिहार में जंगल राज से कानून का राज कायम हुआ है। बिहार के विकास ने गति पकड़ी है। विकास में बिहार का नाम भी होने लगा है। लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है। यह बात सही है कि विकास की दौड़ में उल्टा दौड़ रहे बिहार को इतनी जल्दी आगे ले जाना मुश्किल है। इसमें अभी समय लगेगा। लेकिन यह भी सही है कि इन पांच वर्षों में बहुत कुछ किया जा सकता था। शिक्षा के क्षेत्र में देखें तो शिक्षामित्रों की बहाली का आधार प्रतियोगिता नहीं था। इससे बिहार के स्कूलों में तैयार हो रही एक नई पौध को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित कर दिया गया। इसी तरह स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखें तो आज भी लोग अच्छे इलाज के लिए दिल्ली, वेल्लौर आदि शहरों का रूख करते हैं। यही हाल बिजली और पानी का भी है।
सत्ता के सफल संचालन के लिए सत्तापक्ष का मजबूत होना जरूरी होता है लेकिन जब राजनीति में विकल्पहीनता की स्थिति होती है तो सत्ता पक्ष को तानाशाह बनते देर नहीं लगती। सत्ता पक्ष को हमेशा यह महसूस होना चाहिए कि अगर उसने काम नहीं किया तो जनता दूसरा विकल्प चुन लेगी। नीतीश जी के दल के कई लोग उनसे नहीं बनने के कारण पहले भी दल छोड़कर चले गए। अपनी आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाना और छोटे-छोटे मुद्दों पर रिएक्ट करना उनकी मुख्य कमजोरी है। बाढ़ राहत मुद्दे पर उनका रूख और मौजूदा राजनीतिक हालात से डर लगता है कि कहीं आगे चलकर नीतीश जी भी तानाशाह का रूख न अख्तियार कर लें।
दिग्विजय सिंह ने एक अलग मोर्चा बनाया था। लंदन जाने के पहले उन्होंने कहा था कि वहां से लौटकर बिहार विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाई जाएगी, लेकिन वह लौटकर नहीं आ पाए। दिग्विजय सिंह बिहार के चुनाव में कितना अहम भूमिका निभाते यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन उनका जुझारूपन, उनकी छवि बिहार में आगे एक बढिया विकल्प प्रस्तुत कर सकती थी।

1 comment:

  1. nitish kumar ko navin patnayak banane me abhi samaya lagega.orrisa me koi lalu or ramvilas nahi the.akele dam par ladana nitish ke liye atmaghati hoga.

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