Wednesday, June 30, 2010

नासूर बनता नक्सलवाद


एक बार फिर छत्तीसगढ़ की धरती हुई लाल। फिर बहा बेगुनाहों का खून। अन्य राज्यों को अगर छोड़ भी दें तो यह पिछले तीन महिनों में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का चौथा बड़ा हमला है। कब थमेगा यह मौत का तांडव? कब तक होती रहेगी धरती खून से यूं ही लाल? आखिर कब होगा इस नासूर का इलाज?
हमारे यहां की यह समस्या है कि हम न तो ठीक से सो ही पाते हैं और न ठीक से जाग ही पाते हैं। हम सिर्फ उंघते रहते हैं। जब कोई बड़ी वारदात हो जाती है तब जाकर थोड़ी देर के लिए हमारी नींद खुलती है। हम समस्या के समाधान के लिए कुछ करते नहीं हैं क्योंकि काम करने की जगह बातें करना हमें ज्यादा रास आता है। सो थोड़ा इस मुद्दे पर बहस होती है फिर हमें जम्हाई आने लगती है।
इस मुद्दे पर बड़ी-बड़ी बहस पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। कोई कहता है कि सेना की मदद से नक्सलियों को कुचल देना चाहिए तो कोई कहता है कि नक्सली व्यवस्था के शिकार हैं। कोई कहता है कि नक्सली बनते नहीं बनाए जाते हैं। नेता लोग भी इस आग पर अपनी रोटी सेंकते हैं।
ठीक है कि नक्सली बनते नहीं बनाए जाते हैं और इस समस्या के लिए सरकार बराबर की दोषी है। आखिर सरकार ने इन इलाकों से संसाधनों का जितना दोहन किया उसकी तुलना में आधा पैसा भी विकास के लिए क्यों नहीं खर्च किया? क्या सरकार सिर्फ दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की ही प्रतिनिधित्व करती है? इन पिछड़े इलाके के लोग उसकी जनता नहीं हैं? लेकिन क्या एक गलती तो दूसरी गलती करके सुधारा जा सकता है? क्या नक्सली विचारधारा में भटकाव नहीं आया है और क्या अब नक्सली व्यवस्था से कम जबरन ज्यादा नहीं बनाए जा रहे हैं? आखिर क्या वजह थी कि नक्सली नेता कानू सांन्याल का इस विचारधारा से मोहभंग हो गया? आखिर क्यों उन्होंने मौत को गले लगा लिया? क्या खून बहाने से ही इस समस्या का समाधान हो जाएगा?
बिल्कुल नहीं एक गलती के बदले दूसरी गलती को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। बेगुनाहों का खून बहाने के बाद नक्सली सहानुभूति के काबिल नहीं रह जाते हैं। नक्सली लोग अपने इलाकों में चलने वाली योजनाओं को पूरा होने देने के एवज में जितना टैक्स वसूलते हैं उसका कितना हिस्सा वहां के लोगों पर खर्च करते हैं। उनका सारा खर्च हथियारों की खरीद और बेरोजगारों को बहला-फुसला कर अपने नेटवर्क में शामिल करने में होता है। नक्सली तर्क दे सकते हैं कि वह बेरोजगारों को रोजगार दे रहे हैं लेकिन क्या यह उनका शोषण और मजबूरी का फायदा उठाना नहीं है?
सरकार नक्सल प्रभावित 34 जिलों के लिए 3400 करोड़ रू. का स्पेशल पैकेज देने की योजना बना रही है। लेकिन सरकार के ही धड़े में मतभेद है कि इस योजना को सीधे केंद्र सरकार लागू करे या राज्य सरकारों के माध्यम से। सरकार ने बिना कोई ठोस नीति या रणनीति बनाए ही अपने जवानों को इसी तरह मरने के लिए छोड़ दिया है। सरकार को चाहिए कि इन पिछड़े इलाकों के विकास के लिए न केवल ठोस योजना बनाए बल्कि इस बात को भी सुनिश्चित करे कि ये योजनाएं सही तरह से पूरी हों और लोगों को इसका लाभ मिले। साथ ही नक्सलियों को मुख्यधार में लाने का भी प्रयास होना चाहिए और जो नहीं आना चाहते हैं उनके लिए भी ठोस रणनीति बनानी चाहिए। इसके लिए स्पेशल फोर्स बने जो जंगल वार की कला में दक्ष हों। किसी भी हाल में जवानों को बिना ट्रेनिंग के अभियान के लिए नहीं भेजना चाहिए।

1 comment:

  1. naxal problem should be dealt with firm political willpower alongwith cosidering socio-economic realities.

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