Saturday, September 18, 2010

बात बेईमानी की

पिछले दिनों किसी नें एक चुटकुला सुनाया जिसमें एक बच्चा अपने बाप से पूछता है कि पापा-पापा ये सरकार क्या होती है? बाप उससे पूछता है कि ये बताओ कि घर में कमाता कौन है? बच्चा कहता है कि आप कमाते हैं। तो बाप कहता है कि तो मैं घर की अर्थव्यवस्था हूं। फिर बाप पूछता है कि ये बताओ कि खर्च कौन करता है तो बच्चा कहता कि खर्च तो मां करती है तब बाप कहता है कि तुम्हारी मां इस घर की सरकार है। फिर बच्चा पूछता है कि घर में जो बाई काम करती है वो कौन है? तब बाप बताता है कि वो नौकरशाही या प्रशासन है। बच्चा आगे पूछता है कि तब मैं कौन हूं तो बाप उसे बताता है कि तुम इस देश की आम जनता हो। बच्चा फिर सवाल करता है कि पालने में जो छोटा भाई है वो कौन है तो बाप कहता है कि वो इस देश की भविष्य है।


रात में सभी सो जाते हैं। पालने में जो छोटा बच्चा था वो रोने लगता है उसके रोने से वो बच्चा जाग जाता है। बच्चा देखता है कि उसका छोटा भाई टट्टियों में पड़ा है और उसकी मां खर्राटे मार कर सो रही है। वह उसे जगाने की कोशीश करता है लेकिन उसकी मां नहीं उठती है। फिर वो अपने बाप को खोजता है वह घर की नौकरानी के साथ सोया पड़ा मिलता है। बच्चा उसे भी पुकारता है लेकिन कोई नहीं उठता। सुबह में बच्चा अपने बाप को कहता है कि आज मैं जान गया कि सरकार क्या होती है। बाप पूछता है कि सरकार के बारे में क्या जानते हो? बच्चा कहता कि देश का भविष्य टट्टियों में पड़ा है, नौकशाही अर्थव्यवस्था का शोषण कर रही है, आम जनता मारी-मारी फिर रही है और देश की सरकार है जो खर्राटे मार-मार कर सो रही है।

इस चुटकुले ने मुझे सोंचने पर मजबूर कर दिया। वस्तुत: इस चुटकुले के माध्यम से आज की व्यवस्था पर हंसी-हंसी पर करारा व्यंग किया गया है। इस चुटकुले में गंभीर निहितार्थ छुपे हुए हैं। यह न केवल सरकार बल्कि व्यक्ति और समाज पर गंभीर चोट करता है।

वस्तुत: हमें पहले अपने अंदर झांकने की जरूरत है। सरकार चलाने वाले नेता या नौकरशाह कोई आसमान से नहीं टपकते वह भी हमारे बीच से ही निकलते हैं। यहां सोने वाले , शोषण करने वाले और मारे-मारे फिरने वाले भी हम ही हैं और इस व्यव्स्था को सुधारने वाले भी हम ही हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि जनता को उसके चरित्र के अनुसार ही सरकार मिलती है। अगर हम पहले अपने आप को सुधार लें तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा।

कुछ दिनों पहले भारत के पूर्व सतर्कता आयुक्त प्रत्युष सिन्हा ने कहा था कि एक तिहाई भारतीय बेईमान हैं। यह आंकड़ा अधिक भी हो सकता है। आखिर क्या कारण है कि जब लोग नौकरी के लिए प्रयास करते हैं तो ईमानदारी की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन नौकरी शुरू होते ही सारी की सारी ईमानदारी धरी की धरी रह जाती है। अगर किसी को सरकारी नौकरी मिल जाती है तो वह हर समय अपने को बेचने के लिए तैयार बैठा रहता है। कभी अपनी ईमानदारी को निलाम करता है तो कभी विवाह के मंडी में अपनी बोली लगवाता है। व्यवस्था को तो सभी कोसते हैं लेकिन उसे सुधारने की बात कोई नहीं करता।

पिछले दिनों एक रिश्तेदार से मेरी बात हो रही थी। उनके घर के सदस्य जो सप्लाई विभाग में हैं, की पोस्टिंग उसी शहर में हो गई। मेरे रिश्तेदार ने बताया कि अब उनके घर के राशन का खर्च बच जाता है। मैंने उनसे कहा कि इस तरह की राशन खाना सही नहीं है तो मुझे जवाब मिला कि घर के बड़े सदस्य हैं उन्हें मना नहीं कर सकते। ऐसी कई छोटी-छोटी चीजें हैं जिसे करते समय हम जरा भी नहीं सोंचते कि हम क्या गलत कर रहे हैं। हम दूसरे से तो ईमानदारी और नैतिकता की बातें करते हैं लेकिन जब भी मौका मिले उसे तोड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। जब कुछ करोड़ रूपये का बोफोर्स घोटाला हुआ था तो कितना बवाल मचा था लेकिन आज हजारों करोड़ रूपये का घोटाला हो जाता है लेकिन सब कुछ सामान्य सा लगता है। जाहिर है कि बेईमानी को लेकर समाज में स्वीकार्यता बढ़ी है।

एनसीईआरटी के किताबों के कवर पर गांधीजी का जंतर पढ़ने को मिलता है जिसमें बेईमानी से निपटने का उपाय बताया गया है। लेकिन गांधीजी के जंतर को भले ही हम रट्टू तोते की तरह याद कर लें लेकिन इसका अर्थ न हो हम समझना चाहते हैं और न ही सरकार चाहती है कि जनता इसका मतलब समझे।

3 comments:

  1. achhca lekha hai, par santulit nahi hai. pata nahi chala ki kab khatam ho gaya. isliye ek perfect ending ki koshish karo. baki bahut achcha prayas hai.

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  2. इसका असर यह है कि जब तक हम व्यवसथा से दूर रहते हैं तो व्यवस्था का विरोध करते हैं और जब हम व्यवस्था का अंग बनते हैं तो हम भी वही कर रहे होते हैं जो हम से पहले लोग कर रहे होते हैं।

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  3. सही कहा है गुरु , देश का भविष्य पड़ा रोये या हँसे इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि हम आदी हो चुके हैं इस व्यवस्था के! हमारी सहनशीलता भले ही राह चलते किसी से जाने अनजाने लड़ जाने या फिर किसी और बात पर उबल पड़ती हो लेकिन इन मामलों में हम अपनी जुबान को ना कष्ट देते है ना ही अपनी परम्परायी सहनशीलता को त्यागते हैं और व्यवस्था को ढोते रहते हैं.....

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