Saturday, December 25, 2010

सरकार, आखिर कुछ करते क्यों नहीं?

पिछले दिनों प्याज का दाम सातवें आसमान पर पहुंच गया। मेरे एक मित्र ने मजाक में ही कहा कि डायटिंग करने का यही सही वक्त है। महंगाई का मारा आम आदमी बेचारा कर भी क्या सकता है। आम आदमी के सरकार राज ने पहले ही दाल को आम आदमी की थाली से गायब कर दिया। पहले तो कहते थे कि दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ लेकिन यह तो अब कहावत बन कर ही रह गया है। गरीब आदमी प्याज और रोटी खाकर ही संतुष्ट हो जाया करता था लेकिन अब तो प्याज खाना भी विलासिता हो गया है। अब तो लहसुन, टमाटर आदि सब्जियां भी प्याज की ही राह पर चल रहे हैं।

सरकार को देखिए कृषि मंत्री जहां फसलों की बर्बादी को इसकी वजह बताते रहे वहीं नेफेड के अधिकारी इससे इन्कार करते रहे। दिल्ली सरकार ने जमाखोरों को एक दिन का मोहलत ही दे दिया कि जितना कालाबाजारी कर सकते हो कर लो कार्यवाही तो कल से की जाएगी। वहीं प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्री को चिट्ठी लिख कर जानना चाहा कि महंगाई की वजह क्या है? यह बात समझ से परे है कि संचार क्रांति के युग में आम जनता के हित से जुड़े मसले पर कृषि मंत्री से सीधे बात नहीं की जा सकती थी और उन्हें सख्त निर्देश नहीं दिए गए? इसमें चिठ्ठी लिखकर जवाब का इंतजार क्यों किया गया? आज हिंदुस्तान में भी यह खबर छपी थी कि 'पीएम ने पूछा प्याज महंगा क्यों'। सवाल-जवाब का सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। सरकार आखिर कब कुछ करेगी या करेगी भी कि नहीं?

डेढ़-दो साल पहले जब महंगाई बढी थी तो कहा गया कि खराब मानसून की वजह से ऐसा हुआ है लेकिन दो साल बाद भी महंगाई पर लगाम क्यों नहीं लगा। इस बार तो बारिश भी अच्छी हुई और फसल भी अच्छा हुआ। क्या सरकार के पास ऐसा कोई सिस्टम नहीं है जिससे पता चले कि फसलों के स्टाक कितने हैं उसकी मांग कितनी है और उसकी आपूर्ती कितनी है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि जब कीमतें आसमान छू जाती हैं तब सरकार निर्यात पर रोक लगाती है और आयात करने की सोंचती है। कहीं इसमें भी तो कोई बड़ा घोटाला नहीं छुपा है?

अगर सरकार के पास कोई सिस्टम नहीं है तो वह इसे डेवलप करने का प्रयास क्यों नहीं करती। आखिर कहीं तो फसलें इतनी अधिक हो जाती हैं कि उन्हें रखने या ढोने पर ही अधिक खर्च हो जाता है और वह खेत में ही पड़ी-पड़ी या फिर गोदामों में सही रख-रखाव के अभाव में सड़ जाती हैं और कहीं तो उनकी किल्लत ही रहती है। इससे तो नुकसान किसानों और आम आदमी को ही होता है। कुछ मुट्ठी भर बिचौलिए सारा फायदा उठाते हैं और सारा सरकारी तंत्र इन्ही मुट्ठी भर बिचौलियों की मुट्ठी में कैद रहते हैं।

कृषि मंत्री के रूप में शरद पवार जी की उपलब्धि क्या रही है?पवार साहब सिर्फ भविष्यवाणियां करते हैं। दाम बढ़ने वाली भविष्यवाणियां सही हो जाती हैं और घटने वाली गलत। आज ही एक कार्टून देखा जिसमें एक व्यक्ति कह रहा है कि कृषि मंत्री के बयान में प्याज से ज्यादा परतें होती हैं। पवार साहब के गृह राज्य में ही रोज जाने कितने किसान आत्महत्या कर लेते हैं। मगर उनका क्या किसान मरते हैं तो मरें अपनी बला से वह तो ऐसे ही अपने स्टाइल में कृषि (मंत्रालय) और क्रिकेट की जिम्मेदारियां निभाते रहेंगे। आखिर किसकी हिम्मत है कि उनसे इस्तिफा ले ले या उनका मंत्रालय बदल दे आखिर सरकार भी तो चलानी है और आखिर आम आदमी के लिए कहीं कोई मंत्री बदले जाते हैं। कभी प्याज और टमाटर के लिए सरकार बदल दी जाती थी, लेकिन अब लोग अपनी ही परेशानियों से इतना अधिक पक चुके हैं कि सब कुछ नियति मान कर स्वीकार कर लेते हैं। शायद आम आदमी के मन में यह सवाल चल रहा होगा कि 'आम-आदमी के इस सरकार राज हमें क्या मिला' और सरकार, हमारे लिए कुछ करते क्यों नहीं?

Tuesday, November 30, 2010

जनता की जीत

आजकल बरबस एक गाना मेरे जुबान पर आ जाता, ‘जग सूना-सूना लागे जग सूना-सूना लागे छन से जो टूटे कोई सपना’। ये गाना लालू और पासवान जी के लिए भी सही है। भैंस के सिंग से सीएम की सीट पर बैठने वाले लालू जी का सपना एक दिन प्रधानमंत्री बनने का भी था। इस चुनाव में वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। बिहार विधानसभा चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण थे। जहां लालू और पासवान के लिए चुनाव जीत कर राजनीतिक वनवास से वापसी करने का मौका था वही हार का मतलब था राजनीतिक जीवन खत्म होना। नीतीश के लिए भी हार का मतलब होता राजनीतिक जीवन का अंत। क्योंकि तीनों ही नेता 65 वर्ष से ऊपर के हैं और पांच साल बाद 70 के पार हो जाएंगे। इस उम्र में वो ऊर्जा नहीं रह जाती है जो कि संघर्ष के दिनों में होती है। फिर हार का मतलब होता है कि सारे राजनीतिक और जाति समीकरण का ध्वस्त होना। जैसा कि इन चुनावों में हुआ भी। सारे के सारे समीकरण धरे के धरे रह गए लालू को यादवों ने और पासवान को दलित मतदाताओं ने नकार दिया, जनता ने परिवारवाद, जातिवाद और बाहुबलियों को नकार दिया, राहुल का कोई जादू नहीं चला दूसरी ओर मुसलमानों ने भाजपा को भी वोट दे दिया जिसका भूत उन्हें दिखाया जाता था। इन चुनावों में सबसे अधिक फायदा भाजपा को ही तो हुआ।

आखिर ऐसा क्यों हो गया? इन नतीजों के क्या मायने हैं? आगे बिहार और देश की राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? 80 दशक के अंत और 90 दशक के पूर्वार्ध में देश का राजनीतिक मिजाज कुछ अलग ही हुआ करता था। एगर एक तरीके से कहें तो कांग्रेस अवसान पर थी,जेपी आंदोलन से तपे-तपाए छात्र नेता बिहार के राजनीतिक आकाश पर चमकने के लिए तैयार थे। मंडल और कमंडल की राजनीति उठान पर थी, वर्षों से दबाए गए लोगों की चेतना अब ज्वालामुखी की तरह फटने के लिए तैयार थी। इसी समय लालू यादव के रूप में एक ऐसे नेता का उदय हुआ जो पिछड़ों और गरीबों के लिए जननायक के रूप में उभरा। उसने वर्षों से समाज में सताए लोगों को जुबान दी। समाजिक न्याय का नया नारा बिहार की राजनीति में इतना अहम हो गया कि इसके आगे सारे नारे फिके हो गए। जनता ने लालू को इसका इनाम सर-आंखों पर बिठा के दिया। लेकिन सत्ता का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि यह तभी उतरता है जब खोने के लिए कुछ भी नहीं बचता। लालू चापलूसों से घिरते गए, लालू चालिसा लिखने वाले और लालू के लिए कबाब बनाने वाले लोग पुरस्कारों से नवाजे जाते रहे। एक तरफ देश उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के रथ पर सवार होकर आगे बढ़ रहा था तो दूसरी और लालू बिहार के विकास का चक्का को रोके हुए थे। लालू एक विदूषक ही बन कर रह गए। लालू की एक बड़ी गलती यह भी रही कि उन्होंने जनता को अपना जागीर समझ लिया। पहले अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाया फिर इस चुनाव में अपने बेटे को भी आगे करने का प्रयास किया। ठीक ही तो कहते हैं कि जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है। लालू-राबड़ी राज में खुलेआम गुंडागर्दी, अपहरण, जातीय नरसंहार क्या-नहीं हुआ, लेकिन इससे बेफिक्र लालू अपनी ही वंशी बजा रहे थे। आखिर सिर्फ खोखले वादों से ही तो जनता का पेट नहीं भरता।

पासवान को ही लें कभी हाजीपुर से रिकार्ड मतों से जीतने वाले पासवान पिछले लोकसभा चुनाव में हार गए। पासवान जी एक राष्ट्रीय नेता से क्षेत्रीय नेता बन कर रह गए। पासवान ने भी अपने बंधु-बांधवों को आगे बढ़ाया। उनकी छवि एक अवसरवादी की भी बन गई जो एनडीए सरकार में भी मंत्री बनते हैं और यूपीए की सरकार में भी। 2005 के मार्च में रामविलास विलास पासवान लालू के खिलाफ चुनाव अभियान किया था। चुनाव परिणाम आने के बाद सत्ता की चाबी उनके पास ही थी वो जिसे चाहते उस दल की सरकार बन सकती थी। लेकिन वो एक झूठी जिद पर अड़ गए कि मुख्यमंत्री मुस्लिम ही होना चाहिए जबकि उनके पार्टी से भी एक भी मुस्लिम चुन कर नहीं आया था। इस जिद की वजह से बिहार को एक बार फिर चुनाव का सामना करना पड़ा था और इसकी बड़ी कीमत पासवान ने चुकाई थी लेकिन पासवान ने अपनी गलती से कोई सबक नहीं लिया और अगले लोकसभा चुनाव में उसी लालू से गठबंधन कर बैठे जिसे हटाने के लिए उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा था। परिणाम यह हुआ कि अपने ही अखाड़े में अभी तक अजेय पासवान चारो खाने चित हो गए। अपने अखाड़े में पटकनी से चोट भी अधिक लगता है लेकिन पासवान यहां भी नहीं संभले। गद्दी की चाहत उन्हें इतनी अधिक थी कि लालू के सहयोग से वह राज्य सभा पहुंच गए। उन्होंने यह भी दिखाने की कोशीश की कि वह केंद्र में मंत्री पद का त्याग कर रहे हैं जबकि उन्हें केंद्र में कौन पूछने वाला था। बिहार में जो बयार बह रही थी उसके साथ होने के बजाय वह उसका रास्ता रोकने के लिए खड़े हो गए। फिर क्या था बयार जब चक्रवात का रूप ले लिया तो अपने साथ सभी को उड़ाते ले गई।

आजादी के बाद से कुछ मौकों को छोड़ दें तो 1989 तक बिहार में कांग्रेस की ही सरकार रही लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने किसी सरकार को स्थिर नहीं होने दिया। किसी भी देश या राज्य के विकास के लिए राजनीतिक स्थिरता एक बड़ी शर्त होती है। उस समय केंद्र और राज्य में कांग्रेस की ही सरकार थी लेकिन विकास की दौड़ से बिहार पिछड़ता रहा। वर्षों से दबी जातीय-सामाजिक चेतना अब अंगड़ाई ले रही थी। जनता बदलाव चाहती थी और हुआ भी वही। इस समय केंद्र में भी कांग्रेस की स्थिति कमजोर थी। कांग्रेस की नीति रही है कि किसी भी नेता का कद बढ़ रहा हो तो उसे काट दो। कोई पेड़ तब तक मजबूती से टिका रह सकता है जब उसके नीचे घास-फूस और छोटे-छोटे पेंड़-पौधे भी रहे। इससे उस पेंड़ की मिट्टी सुरक्षित रहती है और जड़ मजबूत होता है लेकिन गांधी परिवार ने अपने सामने किसी को पनपने ही नहीं दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस रूपी बरगद गिरने लगी। कांग्रेस ने लालू का सहयोग किया, 2005 में एनडीए की सरकार को रोकने के लिए विधानसभा भंग करवा दी गई। इसका असर तो होना ही था।

इस बार के चुनाव में दो गठबंधन आमने-सामने थे और कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ रही थी। कांग्रेस का अकेले चुनाव लड़ने का फैसला तो सही था लेकिन उसने समय रहते इसकी तैयारी नहीं की कांग्रेस में राजद और अन्य पार्टियों से निकले बाहुबलियों को टिकट दे दिया गया। समय रहते उम्मीदवारों के नाम की घोषणा नहीं की गई जिससे वो सही से चुनाव प्रचार नहीं कर पाए। चुनाव से पहले मुसलमानों और अगड़ी जातियों का रूझान कांग्रेस की तरफ बढ़ रहा था लेकिन कांग्रेस इसका फायदा नहीं उठा पाई। कांग्रेस की छवि वोटकटवा की ही हो कर रह गई। दूसरी ओर लोगों को लगा कि कांग्रेस अगर कुछ सीट जीत भी जाती है तो वह फिर से लालू का समर्थन कर सकती है और अगर नहीं जीती तो वोट बंटने के कारण लालू को फायदा हो सकता है। नीतीश ने भी लोगों को लालू के जंगलराज की वापसी का भय दिखाया। इससे फिर से लोग नीतीश के पक्ष में लामबंद हो गए।
ऐसा नहीं है कि नीतीश ने बिहार का की कायाकल्प कर दिया। बिहार बाढ़ और सुखाड़ से परेशान है, राज्य में अभी भी निवेश नहीं हुआ है न कोई फैक्ट्री लगी है। बंद पड़े चीनी मिल भी नहीं खुले हैं। बिजली की हालत खराब है। शिक्षा के क्षेत्र में भले ही स्कूलों का स्तर सुधरा है, लड़कियों को साईकिल दी जा रही है इससे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है लेकिन सिर्फ नंबर के आधार पर शिक्षकों की बहाली से शिक्षा का स्तर गिरा है। लेकिन बिहार के लोगों में एक फिल गुड़ फैक्टर काम कर रहा है। जहां वर्षों से कोई विकास न हो वहां थोड़ा सा भी विकास होना बड़ा लगता है। अपराध पर लगाम लगा है और लोग खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इसलिए जनता नीतीश को एक और मौका देना चाहती थी। दूसरे नीतीश ने महिलाओं के लिए योजनाएं चलाकर और उन्हें आरक्षण देकर , भागलपुर दंगों के दोषियों को सजा दिलवाकर अपने समर्थकों की संख्या बढ़वा ली। साथ ही महादलित कार्ड खेलकर विरोधियों के मतों में भी सेंध लगा दिया।

लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि इतनी बड़ी सफलता के बाद आगे क्या होगा? बिहार में विपक्ष को ऐसी पटकनी मिली है कि वह उठने के बजाय हो सकता है कि मर ही न जाए। ऐसी स्थिति में क्या होगा? लोकतंत्र की सफलता के लिए मजबूत विपक्ष का होना भी बेहद जरूरी है। नहीं तो शासक तो तानाशाह बनने में देर नहीं लगती। नीतीश कुमार से न बनने के कारण पहले भी कई नेता उनसे अलग हो चुके हैं। भाजपा जेडीयू की छाया मात्र बन कर रह गई है। सरकार में अफसरशाही बढ़ी है और अफसरों के आगे मंत्रियों की भी कुछ नहीं चलती। जेडीयू परिस्कृत राजद बन कर रह गया है क्योंकि राजद से बहुत सारे नेता अपनी वफादारी त्याग कर नीतीश के साथ हो गए। जो लोग पहले लालू के जंगल राज के सिपाही थे वही लोग अब नीतीश के सुसाशन के रखवाले हो गए। बिहार में अपराध पर लगाम तो लगा लेकिन उन्हीं आपरधिक तत्वों पर प्रशासन का कोड़ा चला जिन्होंने नीतीश के आगे समर्पन कर दिया।

नीतीश से लिए इस अप्रत्याशित चुनाव परिणाम के बाद उम्मीदें और भी बढ़ गई हैं। पहले तो तुलना पंद्रह साल बनाम पांच साल का था। अब तो उनके पहले कार्यकाल के काम से ही तुलना की जाएगी। विकास और सुशासन के जिस नारे के साथ उन्होंने सत्ता में जो वापसी की है उसके नए मानक बनाने होंगे और उनपर खरा उतरना होगा। क्योंकि जनता अगर किसी को पलकों पर बिठाती है तो उसे धूल में मिलाते भी देर नहीं लगती। साथ ही बिहार को एक ऐसे युवा नेता की भी तलाश होगी जो नीतीश का विकल्प बनकर बिहार को नए युग में ले जा सके।

Saturday, October 30, 2010

डर के साथ ही जीत है


पिछले दिनों की बात है मेरे ऑफिस की दीवार पर कई टीवी चैनल टंगे हैं जिनपर अलग-अलग न्यूज चैनल दिखते रहते हैं। टीवी पर कुछ यूं खबर चल रही थी, पारे ने परेशान किया, बारिश ने किया बेहाल अब दिल्ली वालो हो जाओ सावधान ! जाड़ा जमा देगा, जाड़ा ले लेगा आपकी जान। मौसम मिलावट आदि से संबंधित कुछ इसी तरह की खबर आपको न्यूज चैनल खोलते ही डराने के लिए तैयार मिलते हैं। इनमें अनुप्राश और अलंकार के प्रयोग जमकर किए जाते हैं। एक ही बात को कई तरह से कहा जाता है। कुछ प्रोग्राम के आधार वाक्य ही हैं "चैन से सोना है तो जाग जाओ। जाहिर है कि डर बिकता है।

आखिर हम न्यूज क्यों देखते हैं? पेपर क्यों पढ़ते हैं? इसकी वजह है हमारे भीतर का डर जिसे 'फीयर ऑफ अननोन' कहते हैं। मतलब हमें हमेशा अज्ञात से ही एक खतरा महसूस होता है और हम किसी भी संभावित खतरे से बचाव के लिए हमेशा अपडेट रहना चाहते हैं ताकि उससे बचाव के लिए हर संभव उपाय कर सकें। यही कारण है कि डर बिकता है।
आजकल टीवी पर डराने वाले प्रोग्रामों की बाढ़ सी आ गई है जो जितना डराएगा वो उतना टीआरपी पाएगा और जो जितना टीआरपी पाएगा वो उतना ही अधिक विज्ञापन बटोरेगा। आजकल खबरों की परिभाषा टीआरपी तय करते हैं। जो भी बिक जाए वो खबर है। जितना बड़ा डर उतनी बड़ी खबर क्योंकि डर सबको लगता है और डर की टीआरपी होती है। इसलिए जब शनि और मंगल ग्रह की स्थिति एक साथ रहती है तो यह बड़ी खबर बनती है और इस पर घंटे भर का प्रोग्राम बनता है।
अगर गौर करें तो पाएंगे कि न्यूज चैनल नकारात्मक बातें अधिक दिखाते हैं। चाहे 2012 में धरती का अंत की खबर हो या महामशीन से महाविनाश की खबर हो या पड़ोसी देश से खतरे की जरा भी अंदेशा हो हर खबर में आपको नकारात्मक पक्ष साफ दिखेगा। खेल में जब टीम मैदान मार रही हो तब की बात को छोड़ दें वरना हार मिलते ही संभल जाओ धोनी, धोनी के धुरंघर धाराशाही, धुल गए धोनी जैसी स्टोरी चलने में जरा भी देर नहीं लगती। आज के दौर में मीडिया की विश्वसनीयता भले ही कम हुई हो लेकिन इसका समाज पर अभी भी बड़ा प्रभाव है। यही कारण है कि हम भले ही मीडिया की हंसी उड़ाते हैं लेकिन ज्योतिष और धर्म-कर्म के प्रोग्राम देखना नहीं भूलते। महामशीन से महाविनाश की खबर हो तो माथे पर चिंता की लकीरें साफ हो जाती हैं। टीवी चैनल यह तो दिखाते हैं कि जानलेवा है लौकी, जहरीली लौकी से जरा संभल कर, खून के आंसू रूलाएगी यह लौकी लेकिन वह किसानों की समस्या को दिखलाना भूल जाते हैं। जब महामशीन को चला कर ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य को जानने का प्रयास किया जाता है तो इसके सकारात्मक पक्ष को नजरअंदाज कर दिया जाता है। क्योंकि दर्शकों को अगर सब कुछ अच्छा ही दिखाया जाए और उसे फील गुड कराया जाए तो वह तो चैन की नींद सो जाएगा फिर न्यूज चैनल कौन देखेगा। इसलिए न्यूज चैनलों का यही मूल मंत्र है 'डर के साथ ही जीत है'।

Thursday, September 23, 2010

अयोध्या मुद्दे पर सबकी नजर

कल अयोध्या मामले पर हाईकोर्ट का फैसला आना है। लेकिन इस संभावित फैसले की आहट पहले से ही सुनाई देने लगी है। हर तरफ इसको लेकर चर्चा की जा रही हैं। कहीं बेबाक तौर पर तो कहीं दबी जुबान में। इस फैसले को लेकर कई सवाल भी हैं जैसे कि जिस समुदाय के विपक्ष में यह फैसला जाएगा वह इसे मानेगा या सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा? दूसरा कि फैसले के बाद माहौल कैसा रहेगा। इसी बात को लेकर बहुत सारे लोग चिंतित हैं। हालांकि कुछ लोगों ने फैसला टलवाने की कोशिश भी की थी लेकिन अंतत: ऐसा कोई भी प्रयास सफल होता नहीं दिख रहा है।

देश अभी कई समस्याओं से जूझ रहा है। कश्मीर के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं, देश के किसी हिस्से में बाढ़ तो किसी हिस्से में सूखा तबाही मचा रही है। नक्सली हिंसा और महंगाई की समस्या तो पहले से ही मुंह बाए खड़ी है। ऐसे में इस फैसले के बाद अगर माहौल को अगर जरा भी बिगड़ने दिया गया तो देश गलत दिशा में जा सकता है। हालांकि ऐसी कम ही संभावना है लेकिन उपद्रवी और फिरकापरस्त लोग हर जगह होते हैं और ये हमेशा मौके की ताक में रहते हैं। इसका एक उदाहरण इन दिनों एसएमएस के जरीए धार्मिक भावना भड़काने की की जा रही कोशिश है। हालांकि एक सुखद बात ये भी है कि एक तबका ऐसा भी है जो संदेश माध्यमों के जरीए भाईचारा बढ़ाने की बात कर रहा है।

अयोध्या विवाद काफी पुराना है। इस विवाद के इतिहास में तो मैं नहीं जाऊंगा लेकिन 89 में मस्जिद का ताला खुलना, कारसेवा का शुरू होना, मुलायम सरकार के दौरान कारसेवकों पर गोलीबारी, आडवाणी की रथ यात्रा और बाबरी मस्जिद का विध्वंस आदि की कुछ धुंधली तस्वीरें मेंरे जेहन में हैं। हजारो ऐसे बेगुनाह जिनके जीवन पर मंदिर-मस्जिद के बनने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था इस विवाद के कारण हुए दंगों की भेंट चढ़ गए। हर महिने लाखों-करोड़ रूपये सिर्फ विवादित स्थल की सुरक्षा में ही खर्च हो रहे हैं।

इस विवाद से कुछ हासिल तो नहीं हुआ हैं, उल्टे छीना ही बहुत कुछ है। जिन लोगों ने दंगे-फसादों के बीच डरे-डरे दिन बिताए आज भी इसके संभावित आहट से आज भी सहम जाते हैं। उस वक्त एक पटाखे के फूटना भी किसी बम विस्फोट सा लगता था। कहीं कोई हल्की शोर से भी लोग चौकन्ने हो जाते थे। आज भी मुझे याद है जब मैं स्कूल में था तभी कहीं किसी गाड़ी के टायर फटने से भगदड़ मच गया और हमें पीछे के रास्ते से सुरक्षित निकाला गया था। मेरा बचपन एक मुस्लिम की गोद में खेलते हुए बीता। वो बंगाली थे और उनका व्यापार पास ही के बाजार में था। लेकिन दंगे की डर से वो एक बार जो लौटे फिर वापस ही नहीं आए। बाद में उन्होंने अपने करींदों के माध्यम से अपना व्यापार समेट लिया।

अयोध्या पर फैसले और उसके बाद के माहौल को लेकर भले ही शंका-आशंका हो लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि माहौल बिगड़ेगा नहीं। तब से अब तक सरयू में काफी पानी बह चुका है। तब के बच्चे जिन्होंने डरे-सहमें इस फसाद को देखा अब बड़े हो गए हैं ये काफी समझदार भी हैं। तब के उन्मादी अब अधेड़ हो चुके हैं और उनका उन्माद भी अब शांत पड़ चुका है। सामाजिक ताने-बाने में भी काफी बदलाव आया है। लोग खुद ही इतनी समस्याओं से घिरे हैं और महंगाई और भ्रष्टाचार जिससे वो रोज दो-चार होते हैं उसके विरोध में भी सड़कों पर नहीं उतरते हैं। लोग तो बस शांति चाहते हैं।

अयोध्या विवाद के समाधान को लेकर भले ही लोगों के मन में कोई संदेह हो लेकिन महाराजगंज के धुसवां कला गांव के निवासियों नें लोगों के सामने एक अनूठी ही मिसाल पेश की है। इस गांव में स्थित मलंग बाबा के दरगाह की चाहारदीवारी के निर्णाण के लिए जब नींव खोदी जा रही थी तो नीचे से शिवलिंग निकला। इसकी खबर पाते ही हिंदू वाहिनी के सदस्य वहां पहुंचने लगे। लेकिन गांव के हिंदुओं ने उन्हे साफ कह दिया कि नेता लोग चले जाएं, गांव के लोग खुद इस मामले में फैसला लेंगे। बाद में दोनों समुदायों के लोगों ने मिल बैठ कर फैसला लिया कि दरगाह के आधे हिस्से का जीर्णोद्धार होगा जबकि आधे हिस्से में शिव मंदिर होगा।

अभी तो हाईकोर्ट का फैसला आना है जैसाकि उम्मीद है कि आगे सुप्रीम कोर्ट में मामला जा सकता है। इस मामले ने अभी तक लोगों से जितना छीना है वो तो नहीं लौटाया जा सकता लेकिन अयोध्या धार्मिक एकता की मिसाल बन सकता है। बशर्ते अयोध्या के लोगों को ही मिल बैठकर इस विवाद को सुलझाने दें।

Saturday, September 18, 2010

बात बेईमानी की

पिछले दिनों किसी नें एक चुटकुला सुनाया जिसमें एक बच्चा अपने बाप से पूछता है कि पापा-पापा ये सरकार क्या होती है? बाप उससे पूछता है कि ये बताओ कि घर में कमाता कौन है? बच्चा कहता है कि आप कमाते हैं। तो बाप कहता है कि तो मैं घर की अर्थव्यवस्था हूं। फिर बाप पूछता है कि ये बताओ कि खर्च कौन करता है तो बच्चा कहता कि खर्च तो मां करती है तब बाप कहता है कि तुम्हारी मां इस घर की सरकार है। फिर बच्चा पूछता है कि घर में जो बाई काम करती है वो कौन है? तब बाप बताता है कि वो नौकरशाही या प्रशासन है। बच्चा आगे पूछता है कि तब मैं कौन हूं तो बाप उसे बताता है कि तुम इस देश की आम जनता हो। बच्चा फिर सवाल करता है कि पालने में जो छोटा भाई है वो कौन है तो बाप कहता है कि वो इस देश की भविष्य है।


रात में सभी सो जाते हैं। पालने में जो छोटा बच्चा था वो रोने लगता है उसके रोने से वो बच्चा जाग जाता है। बच्चा देखता है कि उसका छोटा भाई टट्टियों में पड़ा है और उसकी मां खर्राटे मार कर सो रही है। वह उसे जगाने की कोशीश करता है लेकिन उसकी मां नहीं उठती है। फिर वो अपने बाप को खोजता है वह घर की नौकरानी के साथ सोया पड़ा मिलता है। बच्चा उसे भी पुकारता है लेकिन कोई नहीं उठता। सुबह में बच्चा अपने बाप को कहता है कि आज मैं जान गया कि सरकार क्या होती है। बाप पूछता है कि सरकार के बारे में क्या जानते हो? बच्चा कहता कि देश का भविष्य टट्टियों में पड़ा है, नौकशाही अर्थव्यवस्था का शोषण कर रही है, आम जनता मारी-मारी फिर रही है और देश की सरकार है जो खर्राटे मार-मार कर सो रही है।

इस चुटकुले ने मुझे सोंचने पर मजबूर कर दिया। वस्तुत: इस चुटकुले के माध्यम से आज की व्यवस्था पर हंसी-हंसी पर करारा व्यंग किया गया है। इस चुटकुले में गंभीर निहितार्थ छुपे हुए हैं। यह न केवल सरकार बल्कि व्यक्ति और समाज पर गंभीर चोट करता है।

वस्तुत: हमें पहले अपने अंदर झांकने की जरूरत है। सरकार चलाने वाले नेता या नौकरशाह कोई आसमान से नहीं टपकते वह भी हमारे बीच से ही निकलते हैं। यहां सोने वाले , शोषण करने वाले और मारे-मारे फिरने वाले भी हम ही हैं और इस व्यव्स्था को सुधारने वाले भी हम ही हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि जनता को उसके चरित्र के अनुसार ही सरकार मिलती है। अगर हम पहले अपने आप को सुधार लें तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा।

कुछ दिनों पहले भारत के पूर्व सतर्कता आयुक्त प्रत्युष सिन्हा ने कहा था कि एक तिहाई भारतीय बेईमान हैं। यह आंकड़ा अधिक भी हो सकता है। आखिर क्या कारण है कि जब लोग नौकरी के लिए प्रयास करते हैं तो ईमानदारी की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन नौकरी शुरू होते ही सारी की सारी ईमानदारी धरी की धरी रह जाती है। अगर किसी को सरकारी नौकरी मिल जाती है तो वह हर समय अपने को बेचने के लिए तैयार बैठा रहता है। कभी अपनी ईमानदारी को निलाम करता है तो कभी विवाह के मंडी में अपनी बोली लगवाता है। व्यवस्था को तो सभी कोसते हैं लेकिन उसे सुधारने की बात कोई नहीं करता।

पिछले दिनों एक रिश्तेदार से मेरी बात हो रही थी। उनके घर के सदस्य जो सप्लाई विभाग में हैं, की पोस्टिंग उसी शहर में हो गई। मेरे रिश्तेदार ने बताया कि अब उनके घर के राशन का खर्च बच जाता है। मैंने उनसे कहा कि इस तरह की राशन खाना सही नहीं है तो मुझे जवाब मिला कि घर के बड़े सदस्य हैं उन्हें मना नहीं कर सकते। ऐसी कई छोटी-छोटी चीजें हैं जिसे करते समय हम जरा भी नहीं सोंचते कि हम क्या गलत कर रहे हैं। हम दूसरे से तो ईमानदारी और नैतिकता की बातें करते हैं लेकिन जब भी मौका मिले उसे तोड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। जब कुछ करोड़ रूपये का बोफोर्स घोटाला हुआ था तो कितना बवाल मचा था लेकिन आज हजारों करोड़ रूपये का घोटाला हो जाता है लेकिन सब कुछ सामान्य सा लगता है। जाहिर है कि बेईमानी को लेकर समाज में स्वीकार्यता बढ़ी है।

एनसीईआरटी के किताबों के कवर पर गांधीजी का जंतर पढ़ने को मिलता है जिसमें बेईमानी से निपटने का उपाय बताया गया है। लेकिन गांधीजी के जंतर को भले ही हम रट्टू तोते की तरह याद कर लें लेकिन इसका अर्थ न हो हम समझना चाहते हैं और न ही सरकार चाहती है कि जनता इसका मतलब समझे।

Friday, September 10, 2010

सफेदपोशों का खेल

भद्रजनों के खेल कहे जाने वाले क्रिकेट को क्या हो गया है। लगता है सफेद कपड़ों में खेले जाने वाला खेल (अब सफेद कपड़े में केवल टेस्ट मैंच ही खेला जा रहा है) सफेदपोशों का खेल बनता जा रहा है। पिछले दिनों पाकिस्तान के सात खिलाड़ियों का नाम मैच फिक्सिंग में सामने आया। यह पहला मौका नहीं है जब मैच फिक्सिंग का मामला सामने आया है, लेकिन इस बार स्पॉट फिक्सिंग के रूप में एक नया मामला सामने आया है। पहले खिलाड़ी पैसे लेकर खराब खेलते थे लेकिन अब यह भी तय होने लगा कि कौन सा बॉलर पहला ओवर डालेगा और ओवर की कौन सी डिलीवरी नोबॉल होगी।

लेकिन पाकिस्तान की प्रतिक्रिया देखिए उसे तो हर गलत काम के पिछे भारत की साजिश ही नजर आती है। चाहे लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमला हो या पाकिस्तान में बाढ़ हो या फिर मैच फिक्सिंग में उनके खिलाड़ियों का फंसना। जब आईसीसी ने पाकिस्तान के तीन खिलाड़ियों को निलंबित किया गया तो उसपर भी पाकिस्तान ने कहा कि भारत पाकिस्तान में क्रिकेट को तबाह करना चाहता है। लंदन में पाकिस्तानी उच्चायोग के एक अधिकारी ने तो आईसीसी अध्यक्ष शरद पवार पर मुकदमा करने की भी धमकी दे डाली।

इससे पहले भी पाकिस्तान के कुछ खिलाड़ी मैच फिक्सिंग की फांस में फंस चुके हैं। पाकिस्तान अगर समय रहते इसके लिए कोई ठोस कदम उठाता तो शायद क्रिकेट कलंकित नहीं होता। बात यहां सिर्फ किसी खास देश के खिलाड़ियों के फंसने की नहीं है बल्कि पूरे खेल के दागदार होने की है। पाकिस्तान के हालात अच्छे नहीं हैं। पाकिस्तान जाकर कोई देश खेलना नहीं चाहता। श्रीलंका के शेरों ने कुछ हिम्मत दिखाई भी थी तो उनका स्वागत गोलियों से हुआ। इसके बाद वर्ल्ड कप का आयोजन भी पाकिस्तान से छिन गया। इस पर भी उसने भारत पर ही आरोप लगाया था।

पाकिस्तान की क्रिकेट भी राजनीति का शिकार हो गई है। किसी भी खिलाड़ी का स्थान सुरक्षित नहीं है। कप्तान दर कप्तान बदले जाते हैं। वरिष्ठ खिलाड़ी भी बड़े बेआबरू होकर बाहर टीम से बाहर निकाले जाते हैं। ऐसे में खिलाड़ियों को जब टीम में मौका मिलता है तो दौलत और शोहरत के भूखे खिलाड़ियों को फिसलने में देर नहीं लगती। ऐसे में पाकिस्तान अपने यहां के हालात सुधारने के बारे में सोंचे। हर बात में भारतीय साजिश की शुतुरमुर्गी सोंच से ऊपर उठे। तभी देश का भला होगा। अभी तो तीन क्रिकेटरों पर प्रतिबंध लगा है, ख़ुदा ना करे कि कहीं पूरी टीम पर ही प्रतिबंध न लग जाए। एक तो पाकिस्तान भ्रष्टाचार के आरोपों से परेशान रहा है। पाकिस्तान में आतंकवाद और बाढ़ की आपदा बड़ी तबाही मचा रही है। ऐसे में सरकार की उदासीनता और आपदा के समय राष्ट्रपति के यूरोप भ्रमण के कारण देश की छवि पहले से ही गिरी है दूसरे अगर और अगर ऐसा हुआ तो उस देश की कितनी बदनामी होगी और इस दाग को धोना बड़ा मुश्किल होगा।

दूसरे देशों के खिलाड़ियों का नाम जब मैच फिक्सिंग में आया तो उन पर वहां के बोर्डों ने कार्यवाही की लेकिन पाकिस्तान को तो पहले सबूत चाहिए और पाकिस्तान की तो यह नियती हो गई है कि कितने भी सबूत दे दो उससे उसका पेट नहीं भरता। पिछले वर्ड कप में ही तो आयरलैंड के खिलाफ मैच में पाकिस्तान की शर्मनाक हार के बाद बवाल मचा था कहा गया कि मैच फिक्स थी। मैच के बाद टीम के कोच बॉब वूल्मर संदिग्ध परिस्थितियों में अपने होटल के कमरे में मृत पाए गए उस घटना की न तो गुत्थी सुलझी और न तो पाकिस्तान ने उससे कोई सबक लिया। शायद पाकिस्तान की सोंच ही हो गई है कि बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ।

Saturday, September 4, 2010

पैसा है प्यारा-प्यारा, काम-काज नहीं गंवारा

कुछ दिनों पहले सांसदों के वेतन बढ़ाने को लेकर बड़ा हंगामा मचा। कुछ सांसदों ने कहा कि इस समय सांसदों के वेतन बढ़ाने से महंगाई की मारी जनता के बीच गलत संदेश जाएगा। वहीं लालू-मुलायम जैसे सांसदों ने वेतन बढ़वाने के लिए मोर्चा खोल दिया और यहां तक कह दिया कि सांसदों के वेतन बढ़ाने को लेकर वही लोग विरोध कर रहे हैं जिनके विदेशी बैंकों में पैसे जमा हैं और अंतत: उनका वेतन बढ़ ही गया। वैसे अधिकांश सांसद वेतन बढ़ाने के पक्ष में ही थे।

वेतन बढ़वाने की मांग के पीछे उनका तर्क था कि सचिवों की तनख्वाह उनसे अधिक है इसलिए उनसे पद में ऊपर होने के कारण उनका वेतन सचिवों से एक रू. ही सही अधिक तो होना ही चाहिए। हालांकि सांसदों के वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर हर जगह इस बात की आलोचना हुई और लोगों में उनके प्रति गलत संदेश ही गया।

सांसदों का वेतन क्यों नहीं बढ़ना चाहिए और इसका विरोध इतना अधिक क्यों है? सांसदों के वेतन बढ़ाने के पक्ष में जो बातें हैं वो यह कि सांसदों को दो जगह घर रखना पड़ता है। हालांकि उन्हें दिल्ली में बंगला मिलता है। सरकारी कर्मचारियों की तुलना में उनका ऑफिस 24*7 खुला रहता है। क्षेत्र की जनता का इनके यहां आना-जाना बदस्तुर जारी रहता है। इनके स्वागत सत्कार पर भी खर्च होते हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे खर्च हैं जो पहले के वेतन से बमुश्किल से पूरा हो पाता है। अन्य देशों की तुलना में भी यहां के सांसदों का वेतन बहुत कम है। इसलिए वेतन बढ़ना जायज है।
बाबूओं से अगर तुलना करें तो दोनों ही तो भ्रष्ट हैं। बाबू भी तो वेतन के अलावा अन्य तरीकों से कमाई करते हैं। उनके भी तो कई बेनामी संपत्तियां हैं। बिना कमीशन लिए तो वो भी काम नहीं करते। फिर उनका वेतन इतना अधिक क्यों? बाबू की तुलना में नेताओं से लोग ज्यादा नाराज क्यों हैं?

बाबूओं की तुलना में सांसदों के खिलाफ लोग शायद इसलिए हैं क्योंकि बाबू बनने के लिए कुछ योग्यता की दरकार होती है लेकिन नेता बनने के लिए केवल धनबल,बाहुबल और चाटुकारिता आदि गुणों की ही आवश्यता होती है। बाबू तो जनता से कमीशन लेते है लेकिन नेता तो इन बाबूओं से भी कमीशन ले लेते हैं और इन्हें भ्रष्ट बनाने वाले शायद नेता ही हैं। बाबू तो कुछ काम भी करते हैं लेकिन नेताओं के लिए काम करने का कोई बंधन नहीं होता है न ही उनपर किसी तरह की जिम्मेदारी होती है। संसद में चाहे हंगामे में कितना ही वक्त जाया कर लो और संसद की कार्यवाही में चाहे जितना ही पैसा जाया होता हो तो होने दो। हमारा क्या है हमें तो उसमें हिस्सा लेने पर उसका भुगतान तो मिल ही जाएगा। एक और बात यह है कि बाबू तो अपने हाथों अपना वेतन नहीं बढ़ा पाते हैं वहीं सांसद अपना वेतन अपनी मनमर्जी बढ़ाते रहते हैं।

सांसदों को वेतन के अलावा ढेरों सुविधाएं हैं जो उन्हें मुफ्त में मिलती हैं। जैसे बिजली, पानी, फोन आदि की असीमित छूट। मुफ्त में इन सुविधाओं को मिलने के कारण सांसदों के लिए इनका कोई मोल नहीं होता। एक तरफ सरकार लोगों को बिजली और पानी की बर्बादी रोकने और उन्हें बचाने की नसीहत सिर्फ जनता के लिए ही होती है सांसदों और विधायकों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। आम जनता के लिए सरकार इन मूलभूत सुविधाओं की कीमत बढ़ाती जा रही है और नेता इसे बेकार में बहाए जा रहे हैं। एक तरफ बिजली बचाने के लिए सरकार अर्थ ऑवर मनाने का रस्म अदायगी करती है वहीं नेताओं के बंगले रोशनी में नहाए रहते हैं। यहां अगर नेता लोग खुद पहल करके इन्हें बचाने का प्रयास करें तो जनता भी इसका अनुकरण करेगी और देश के लिए यह एक भला काम होगा।

बेशक सांसदों के वेतन बढ़ा दिए जाएं लेकिन इनकों मिलने वाली मुफ्त की सुविधाओं को बंद कर दिए जाएं जिससे इनके मोल का इन्हे पता चले। साथ ही इनके कामकाज के लिए कुछ उत्तरदायित्व भी तय हों। वेतन बढ़ाने के लिए एक आयोग बने। सांसदों को मिलने वाली सांसद निधि से होने वाले खर्च पर भी कड़ी निगरानी रखी जाए और संसद की कार्यवाही अगर सांसदों के हंगामे के भेंट चढ़ जाती है तो उस दिन का वेतन उनसे काट लिया जाए। साथ ही सांसदों को संसद की कार्यवाही में न्यूनतम उपस्थिति की एक सीमा भी तय कर देना चाहिए। मेरे ख्याल से वेतन बढ़ने से जनता को ज्यादा आपत्ति नहीं होगी अगर सांसद अपना आचरण सुधारें, हंगामें की जगह स्वस्थ बहस करें और जनता की परेशानियों के बारे में भी सोंचें। सांसदों के पास एक अच्छा मौका था कि वह महंगाई की मारी आम जनता के सामने एक मिसाल पेश करती जिसे उन्होंने गंवा दिया।

Wednesday, September 1, 2010

सड़ाओ नहीं, सरकार

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने सरकार को पहले कहा था कि गोदामों में सड़ रहे अनाज को गरीबों में बांट दिया जाए। लेकिन सरकार ने निष्क्रियता और निर्लज्जता की सारी हदें पार कर दीं। कृषि मंत्री ने कहा था कि कोर्ट का कथन आदेश नहीं सुझाव है और भले ही अनाज सड़ जाए लेकिन इसे गरीबों को बांटना संभव नहीं है। अंत में कोर्ट को कहना पड़ा कि सरकार को आदेश दिया गय था सुझाव नहीं।
सवाल यह उठता है कि क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के सुझाव और आदेश में अंतर भी नहीं समझ सकती है। अगर सामान्य सी बातों की समझ सरकार को नहीं है तो जटिल मुद्दों का क्या होगा? क्या सरकार के सॉलीसिटर जनरल, कानून मंत्री सब नकारा हो गए है। क्या उनसे इस्तीफा नहीं ले लेना चाहिए।
पहले तो कृषि मंत्री कहते रहे कि गरीबों को सड़ रहे अनाज मुफ्त बांटना संभव नहीं है। अब जब कोर्ट का आदेश मिल गया है तो कह रहे हैं कि कोर्ट का आदेश है तो इसका पालन किया जाएगा। लेकिन जब पहले ही मंत्री जी ने हार मान ली थी तो अब कैसे आदेश का पालन कर पाएंगे। वैसे भी पवार साहब काम से ज्यादा भविष्यवाणियां करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने जब-जब कीमतें बढ़ने की भविष्यवाणियां की सही साबित हुईं। इसलिए गरीबों को मुफ्त में अनाज बंट पाएगा ऐसा लगता नहीं है।
एक तरफ तो सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लाती है ताकि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को निश्चित मात्रा में अनाज कम कीमत पर उपलब्ध कराया जा सके। इसे पारित करवाने में भी हजारो झमेले होते हैं। लेकिन सड़ रहे अनाज को अगर सरकार चाहे तो बांटने के लिए कोई विधेयक लाने की जरूरत तो नहीं होगी न ही कोई विवाद होगा। यह तो एकदम सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है। अगर सरकार अनाज को सुरक्षित नहीं रख सकती है तो खरीदती ही क्यों है। सरकार उतना ही अनाज खरीदे जितनी जगह उसके गोदामों में हों। एक तरफ अनाजों के दाम बढ़ रहे हैं और बढ़ती जनसंख्या के कारण दूसरी हरित क्रांति की बात की जाने लगी है वहीं दूसरी और सरकार अनाजों को बर्बाद कर गंभीर अपराध कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि, "जिस देश में हजारों लोग भूख से मर रहे हों वहां अन्न का एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। यहां 6000 टन अनाज बर्बाद हो चुका है।" लेकिन सरकार को क्या फर्क पड़ता है। जनता के गाढ़े मेहनत के उत्पाद चाहे वह अनाज हो या पैसा बर्बाद करना तो अब उसकी आदत सी हो गई है। चाहे अनाज को सड़ाने के रूप में हो या फिर विभिन्न योजनाओं और आयोजनों में बंदरबांट के रूप में हो।
अगर इन अनाजों का सदुपयोग भी हो जाए तो न तो बढ़ती जनसंख्या का असर होगा और न अनाजों के दाम इस तरह आसमान छूएंगे। जितना अनाज हम पैदा करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा खेतों से गोदामों तक जाने में खराब हो जाता है और फिर गोदामों में भी सही रखरखाव के अभाव में कुछ हिस्सा नष्ट हो जाता है। आजकल आपदा या अभाव संसाधनों के कुप्रबंधन के कारण ज्यादा होने लगे हैं। अगर संसाधनों का सही इस्तेमाल किया जाए तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

Sunday, August 29, 2010

पानी, पानी रे पानी, पानी

पिछले दिनों जब दिल्ली बरसात में पानी-पानी हो रही ठीक उसी समय बिहार में लोग पानी-पानी चिल्ला रहे थे। दो साल पहले की ओर लौटें तो इसी समय बिहार बाढ़ से बेहाल था। पिछले साल भी मानसून दगा दे गया था। पिछले कुछ सालों में अगर देखें तो मानसून का रूठना जारी है, कभी तो बहुत ही ज्यादा बारिश और कभी कुछ भी नहीं। जिस इलाके में सूखा रहता था वहां बाढ़ आ जाती है और जहां बाढ़ की समस्या रहती थी वहां सूखा पड़ने लगा है।
कुछ साल पहले मुंबई में इतनी बारिश हुई कि चेरापूंजी का रिकार्ड टूट गया। कुछ साल पहले राजस्थान को भी बाढ़ की तबाही से दो-चार होना पड़ा था। दिल्ली में वर्षों बाद इतनी बारिश हुई है। वहीं बिहार में सूखा पड़ा है। अगर गौर करें तो लगता है कि मानसून का दिशा ही बदल गई है। अब इसका कारण अल निनो हो या ला निनो या फिर ग्लोबल वार्मिंग समय रहते अगर इस समस्या का हल नहीं ढूंढ़ा गया तो पानी के लिए लोग खून बहाएंगे।
दिल्ली जैसे शहरों में भले ही कितनी भी बारिश हुई हो लेकिन इससे भूजल का स्तर नहीं बढ़ा है। गाजियाबाद में एक तरफ लोग आसमान से बरसने वाली पानी से परेशान थे तो दूसरी ओर पीने के पानी के लिए भी तरस रहे थे। बाढ़ और सूखा जैसे आपदा प्रकृति के साथ-साथ मानव निर्मित भी होते जा रहे हैं। अत्यधिक शहरीकरण के कारण पुरानी जल प्रणालियां जैसे झील, तालाब आदि नष्ट होती जा रही हैं। मुंबई के जलमग्न होने की एक वजह मीठी नदी के जल मार्ग के साथ छेड़-छाड़ थी। नदियों या नहरों में गाद जमा होती रहती है लेकिन उसकी सफाई नहीं हो पाती है। आखिर ऐसे में बारिश का पानी कहां जाए। वह तो तबाही मचाएगी ही। पोखरों या झीलों को पाटकर हमने उस पर ऊंचे-ऊंचे महल-दोमहले खड़ा कर दिए हैं। इससे बरसात के पानी का सही सदुपयोग नहीं हो पाता है।
अब वक्त आ गया है कि हम पानी का प्रबंधन करना सीखें। बाढ़ से बचने के लिए पहले तो नदी-नाले और नहरों की सफाई तो करवाई ही जाए दूसरी ओर बरसात के पानी के सदुपयोग के लिए पोखरों और झीलों की भी समय-समय पर सफाई हो साथ ही रेन वाटर हारवेस्टिंग और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए वाटर रिफिलिंग जैसे उपाय करने होंगे। इसके लिए बहुत अधिक तामझाम करने की भी जरूरत नहीं है बस छतो से नीचे गिरने वाले पानी को पाइप के जरिए कुओं, हैंडपंपों या सॉकपीट के जरिए जमीन के अंदर पहुंचाना है। मुसीबत के समय सरकार की ओर मदद की आस लगाने के बजाय अगर हम खुद ये सब उपाय अपनाएं तो पीने के पानी की समस्या नहीं होगी। सरकार को भी चाहिए कि वह कुछ ठोस पहल करे। नदियों को जोड़ने की जो परियोजना चल रही है उसे समय से पूरा करे साथ ही ऐसे उपाय किए जाएं कि बाढ़ वाले इसाके के पानी का इस्तेमाल सूखा ग्रस्त इलाकों में किया जा सके। आपदा के समय करोड़ों के राहत पैकेज देने से अच्छा है कि आपदा आए ही नहीं इसके लिए समय रहते उपाए किए जाएं।

Sunday, August 22, 2010

सेवा नहीं सिर्फ मेवा की चिंता

पहले अपने देश में दो क्षेत्र ऐसे थे जिसमें सेवा भाव अधिक था। लेकिन बदलते जमाने के साथ इन दोनों क्षेत्रों को भी प्रोफेशनलिज्म और मैनेजमेंट ने अपने जबड़े में लिया है। मैं बात कर रहा हूं शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र की। अब यहां सेवा कम और मेवा पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

पिछले दिनों मुझे इन दोनों सेवाओं में बढ़ते व्यापार से सामना हुआ। पहले शिक्षा को लेते हैं। पिछले दिनों मेरे एक रिश्तेदार अपने बेटे के एडमिशन के लिए दिल्ली आए। मुझे भी उनके साथ स्कूल जाना पड़ा। स्कूल 'तथाकथित' इंटरनेशनल था। स्कूल दिल्ली के बाहरी इलाके में एक गांव में कई एकड़ में फैला था। स्कूल में अस्तबल, खेल के मैदान, स्विमिंग पुल आदि मौजूद थे। स्कूल का फीस तो लाख दो लाख था पर उनके बेटे ने दसवीं में A+ ग्रेड पाया था इसलिए उसे पूरा स्कॉलरशिप मिल गया था। ऐसा स्कूल इसलिए करते हैं कि अच्छे स्टूडेंट को लेने से उनका रिजल्ट अच्छा हो सके।

स्कूल में मैंने देखा कि इंजीनियरिंग और मेडिकल के कोचिंग सेंटर अपना स्टॉल लगा कर बैठे थे। कैंपस में भी कोचिंग की व्यवस्था थी और अगर कोई छात्र कोचिंग के लिए बाहर जाना चाहे तो उसे स्कूल बस से कोचिंग सेंटर लाने और ले जाने की व्यवस्था थी। उस कोचिंग वाले ने हमें समझाया कि आपका लड़का सुबह से दोपहर तक स्कूल में क्लास करेगा उसके बाद दोपहर से शाम तक बाहर कोचिंग करेगा और शाम में थका आएगा तो सेल्फ स्टडी कब कर पाएगा। उसने बताया कि अगर अपने बच्चे को कैंपस में ही कोचिंग में डलवा देते हैं तो स्कूल का क्लास नहीं करना पड़ेगा और ना ही कोचिंग के लिए बाहर जाना पड़ेगा। इस तरह सेल्फ स्टडी के लिए वक्त भी मिल जाएगा। इसके लिए स्कॉलरशिप की भी व्यवस्था थी लेकिन स्कॉलरशिप मिलने के बाद भी कोचिंग की फीस 75 हजार थी। मेरे मन में सवाल उठा कि जब कोचिंग में ही पढ़ाना है तो फिर बच्चे को लोग इतनी दूर क्यों लाते हैं और स्कूल की क्या भूमिका रह जाती है।

बहरहाल उस समय मेरे रिश्तेदार ने कोचिंग में बच्चे को नहीं डलवाया। लेकिन कुछ समय बाद उन्हे महसूस हो गया कि स्कूल में पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है और बच्चे को कोचिंग में डलवाना ही पड़ेगा। आजकल जगह-जगह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कोचिंग सेंटर तो लोगों को तो सपने बेच ही रहे हैं। लेकिन क्या स्कूल सपनों को बेचने में सहयोग कर बहती गंगा में हाथ नहीं धो रहे हैं।

पहले जहां गुरूकुल प्रणाली थी। छात्र अगर गरीब होता था तो गुरू की सेवा कर शिक्षा प्राप्त कर सकता था। गुरू का भी जोर छात्रों को अच्छी शिक्षा देने में होती थी। लेकिन आजकल तो व्यवस्था एकदम उलट ही गई है।
अब चिकित्सा सेवा को लेते हैं। पिछले महिने घर के एक सदस्य को कुछ तकलीफ थी। इलाज के लिए निजी अस्पताल गईं। चूंकि उनके पास मेडीक्लेम था इसलिए अस्पताल नें उन्हें भर्ती करने में जरा भी देर नहीं की। पानी का बोतल लगा दिया गया और तरह-तरह के टेस्ट करवाया जाने लगा। कोई बिमारी नहीं होने पर भी तीन दिनों तक अस्पताल में ही रूकने का इंतजाम कर दिया गया।

दूसरा केस मेरे पिताजी का है जो डायबिटिज के मरीज हैं। उन्हें एक सरकारी अस्पताल में ही लेकर गया। उन्हें डॉक्टर ने सात तरह की दवाईयां लिखी हैं जो आजीवन चलेगा और दवाईयों का खर्च दो हजार महिना है। मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि डायबिटिज या ब्लडप्रेशर जैसे रोग जो एक बार होने के बाद मरने तक चलते हैं,के लिए सस्ती दवाईयां नहीं बननी चाहिए। अगर यह रोग गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के लोग को हो तो वह इसना खर्चा कैसे उठाएगा। उसे तो रोग को नजरअंदाज करना पड़ेगा। बचपन में अगर पेट में कोई गड़बड़ी होती थी तो दस पैसे के दवा से ठीक हो जाता था लेकिन आजकल को इसके लिए भी दस रूपये का दवा लेना पड़ता है। कंपनियों का तो मुनाफा ही कर्तव्य है लेकिन डॉक्टर सेवा के अपने कर्तव्य को क्यों भूल जाते हैं।

Sunday, August 15, 2010

आओ खेलें दुल्हा दुल्हन

कहते हैं कि शादी-ब्याह कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं होता है। लेकिन आज कल तो यह खेल-तमाशा ही बनता जा रहा है। कुछ लोगों ने इसे खेल बना दिया है। इनके लिए शादी और खेल में ज्यादा अंतर नहीं है। खेल की तरह ही इसमें पैसा है, मनोरंजन है और ग्लैमर भी है। इसमें भी मीडिया कवरेज है और खेलों की तरह मैच फिक्सिंग का खतरा भी।

करीब साल भर पहले एक शो आया था राखी का स्वयंवर लेकिन शो के अंत में पता चला कि शादी तो होगी ही नहीं। फिर एक दूसरा शो आया राहुल दुल्हनियां ले जाएगा। इसके प्रचार में कहा गया कि सिर्फ स्वयंवर ही नहीं शादी भी। और शादी हो भी गई। लेकिन कुछ महिने बाद ही खेल में एक नया मोड़ आ गया। राहुल की दुल्हनियां डिम्पी में राहुल पर पिटाई का आरोप लगाया। यह आरोप राहुल के लिए नया नहीं है, राहुल की पहली पत्नी ने भी ऐसा ही आरोप लगाया था और बाद में उसने राहुल को तलाक दे दिया था।

मीडिया को जैसे ही इसकी भनक लगी इस खबर के मैराथन प्रसरण में लग गई। कई विशेषज्ञ बैठ गए और कई एंगल से इस खबर का विश्लेषण होने लगा। आखिर मीडिया इतने अच्छे कैच (खबर) को कैसे छोड़ सकती थी। इसमें मशाला और मनोरंजन तो था ही साथ ही इस कैच को ड्रॉप करने का मतलब था टीआरपी रूपी कप से हाथ धो बैठना।

पहले तो राहुल पर तमाम तरह के आरोप लगे। फिर कुछ लोगों ने डिंपी पर भी आरोप लगाया कि डिंपी कोई दूध की धुली नहीं है। आखिर राहुल का चरित्र तो किसी से छुपा नहीं था। फिर ऐसे में डिंपी ने रिस्क क्यों लिया। क्या इसके पिछे पैसा और शोहरत की भूख थी। हो सकता है कि इस खेल के पीछे भी कोई खेल हो। इसका खुलासा हो सकता है बाद में हो। लेकिन जिस दिन भी यह हुआ मीडिया को फिर एक मशाला मिलेगा। राष्ट्रहित के मुद्दे फिर गौण हो जाएंगे, और दर्शक एक बार फिर ठगे जाएंगे। क्योंकि वर्तमान दौर में ठगे जाना ही दर्शकों की नियती हो गई है।

एक बार डीयू में प्रभाष जोशी जी ने पत्रकारिता के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि आज स्वयंवर दिखा रहे हो कल तुम्हें प्रसव दिखाना होगा। प्रभाष जी टीवी पर आ रहे ऐसे प्रोग्रामों से काफी खिन्न थे। अगर चैनलों का बस चले तो शादी क्या सुहागरात और प्रसव सब कुछ दिखा देंगे। क्योंकि उनका सिद्धांत ही हो गया है कि सब कुछ खेल है और इस खेल में सब कुछ बिकता है।

Sunday, July 18, 2010

मीडिया नहीं लोकतंत्र पर हमला

यह पोस्ट पब्लिश करने में थोड़ा टाइम लग गया। लेकिन मैं अपनी बात कहे बिना रह न सका। पिछले दिनों आजतक के ऑफिस पर संघ के कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया। संघ के कार्यकर्ता आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइंस टुडे पर दिखाए गए उग्र हिंदुवाद के स्टिंग ऑपरेशन से भड़के हुए थे। इस हमले को केवल एक मीडिया संस्थान पर हमले के रूप में न लेकर लोकतंत्र पर हमले के रूप में देखा जाना चाहिए। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है। हमे संविधान ने अभिव्यक्ति की आजादी दी है। इस तरह यह हमला लोकतंत्र और संविधान पर आघात करता है और भारत के नागरिक होने के नाते हमारा यह मूल कर्तव्य है कि हम इस तरीके के किसी भी हमले का पूरजोर विरोध करें।
ऐसा पहली बार नहीं इससे पहले भी इस तरीके हमले मीडिया पर होते रहे हैं। कुछ साल पहले मुंबई में स्टार का ऑफिस उपद्रवियों का निशाना बना था। लेकिन देश की राजधानी में इस तरह की पहली घटना है। आजकल देश में विरोध के नाम पर विध्वंश की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। किसी का कहा अगर रास न आए तो उसका मुंह बंद कराने की कोशिश की जाती है।
संघ ने अपने बयान में कहा कि उनका केवल शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन का कार्यक्रम था। संघ ने इस हमले को डेमोक्रेटिक बताते हुए कहा कि जिस तरह मीडिया को अपनी बात कहने की आजादी है उसी तरह उन्हें भी विरोध करने का अधिकार है। सही है आप विरोध करिए लेकिन विरोध का यह तरीका किस देश की डेमोक्रेसी में आता है। विरोध के नाम पर तोड़फोड़ का अधिकार आपको किसने दे दिया। अगर शांति पूर्ण प्रदर्शन का ही प्रोग्राम था तो फिर यह प्रदर्शन उग्र कैसे हो गया। इसकी जिम्मेवारी तो संघ की ही बनती है और इसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए।
संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा ने भी संघ का बचाव ही किया। आजतक पर भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद का सारा जोर बहस को मुख्य मुद्दे से भटकाकर स्टिंग ऑपरेशन की आलोचना करना था। उनका कहना था कि टीआरपी के लिए मीडिया इस तरह की चीजें दिखाती हैं। और जब आजतक पर हेडलाइंस टुडे के राहुल कंवल आए तो रविशंकर प्रसाद शो छोड़कर चले गए। इसमे तो मूल सवाल यही है कि विरोध का यह तरीका कैसे सही है? स्टिंग ऑपरेशन की भावना या सच्चाई की बात तो अलग मुद्दा है और इसका बात करना तो मुद्दे से भटकना है। अगर स्टिंग गलत भी है तब भी उन्हें हमले का हक नहीं मिलता। उन्हें पहले चैनल पर आके अपनी बात रखनी चाहिए। फिर वह चैनल पर मुकदमा कर सकते थे।
संघ अपने अनुशासन के लिए जाना जाता है। वह हमेशा सिद्धांतों की बात करता है। इमरजेंसी के समय प्रेस पर सेंसर का उसने भी विरोध किया था। मैंने सुना है कि देश में कही अगर कोई आपदा आती है तो संघ के लोग पहले पहुंचते है और राहत कार्य में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। इसी तरह अपने को पार्टी विद डिफरेंश कहने वाली भाजपा के नेता रविशंकर प्रसाद को विभिन्न बहसों में भाग लेते और दूसरों की धज्जियां उड़ाते देखा है। इनके प्रति जो भी इज्जत मन में थी वह मीडिया पर हमले पर उनके स्टैंड से कम गया।
दूसरा मुझे इस बात का भी दुख है कि इस खबर को प्रिंट मीडिया ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। जैसे यह हमला केवल इलेक्टॉनिक मीडिया पर था। दूसरे के घर पर हमला होता है तो होने दो अपना घर तो अभी सुरक्षित है। कुछ इसी तरह का रूख अखबारों ने रखा। दूसरे दिन हिंदुस्तान में यह खबर लीड थी कि भारत में ढाई करोड़ की मर्सीडिज बिकेगी। लेकिन हमले वाली खबर सिंगल कॉलम में बीच में कहीं छुपा था और पूरी खबर पांचवें पन्ने पर नीचे लगाया गया था। इस पर न तो कोई संपादकीय और न तो कोई लेख छापा गया। यही हाल हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया का था। यह बात समझ से परे है कि अगर ढाई करोड़ की कार अगर भारत में बिकती है और दस लोगों ने इसके लिए बुकिंग करवा भी ली है तो इससे कितने लोगों को फर्क पड़ता है। जिन लोगों की खबरें अखबार ने छापा है वो लोगो तो उनकी अखबार पढ़ते भी नहीं होंगे। लेकिन मीडिया पर हमला वाली खबर से भले अभी लगे न लगे लेकिन इससे पूरा देश प्रभावित होगा। मीडिया के अभियान की वजह से ही बहुत सारे घोटाले सामने आए हैं और बहुत सारे केस में दोषी मीडिया की सक्रियता के कारण ही दोषी को सजा मिल पाई है। अगर मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश हुई तो देश में भ्रष्टाचार और बढ़ेगा। फिर बात-बात में कानून हाथ में लेने की प्रवृति भी खतरनाक है। इससे लोकतंत्र पर लाठी धारी भीड़ तंत्र का अधिकार हो जाएगा। जो बात-बात में हमें सिखाएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं।

Monday, July 12, 2010

फुटबॉल के बहाने

फुटबॉल के महाकुंभ का समापन हो गया। यह वर्ल्ड कप
शकीरा के वाका-वाका गीत और जर्मनी के ऑक्टोपस पॉल
के लिए यादगार रहेगा। इस विश्व कप में स्पेन के रूप में एक विश्व को एक नया चैंपियन मिला।
विश्व कप शुरू होने के पहले जो खिलाड़ी हीरो थे,
वो सब जीरो साबित हुए। मेसी, काका, रोनाल्डो, रूनी जैसे फुटबॉल के सुपर स्टार का फ्लॉप हो गए। जबकि इन सबों की लोकप्रियता को पीछे छोड़ते हुए ऑक्टोपस
पॉल बाबा हीरो बन गए।
पॉल बाबा अब किसी परिचय के मोहताज नहीं रह

गए हैं। अखबारों से लेकर टीवी चैनल सभी उन्हीं के
रंग में रंगे हैं। उनकी भविष्यवाणियां सौ फीसदी
सही साबित हुई हैं। एक तरफ उनके
लाखों दीवाने हैं तो दूसरी ओर जर्मनी
वाले उनके खून के प्यासे बन गए हैं।
सच्चाई आखिर जो भी हो इतना तो तय
हो ही गया कि जो पश्चिमी देश हमें सपेरों
का देश कहकर हमारी खिल्ली उड़ाते थे वो
भी हमसे कम नहीं हैं।
खेल के आयोजन के समय इस बात का दुख
हमें सालता रहा कि हमारा देश इस महाकुंभ
में डुबकी क्यों नहीं लगा पाया। हर बड़े खेल के आयोजन में जब हमारा देश पिछड़ जाता है तो हम थोड़ी देर दुख प्रकट करते हैं। हम कहते हैं कि हमारे देश की एक अरब आबादी में से इतने खिलाड़ी भी नहीं निकल पाए कि देश को क्वालिफाई करवा सकें या ओलंपिक में मेडल दिलवा सकें। फिर हम इसके लिए क्रिकेट को कोस लेते हैं। जैसे क्रिकेट ही इस समस्या का जड़ हो और क्रिकेट इन खेलों का शत्रु हो। इसके बाद हम चार साल तक चुप बैठ जाते हैं।
किसी भी खेल में पिछड़ने का कारण किसी दूसरे खेल को बताना सही नहीं है। ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड की आबादी हमारे देश से काफी कम है। ये दोनो देश क्रिकेट के पुराने खिलाड़ी हैं। यहां भी क्रिकेट की लोकप्रियता किसी से कम नहीं है। बावजूद इसके कि दोनो देश फीफा वर्ल्ड कप में भी भाग लेते हैं। किसी भी खेल में किसी को इंट्रेस्ट नहीं है तो उसे आप जबरदस्ती नहीं उस खेल को देखने को कह सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे जर्मनी, इटली या फ्रांस वाले को क्रिकेट के बारे में शायद ही कुछ पता हो और आप उन्हें क्रिकेट देखने को नहीं कह सकते। भारत में प. बंगाल, गोवा और केरल में फुटबॉल लोकप्रिय है और इनकी आबादी भी फुटबॉल खेलने वाले कई देशों से अधिक होगी फिर क्यों नहीं ये राज्य मिलकर एक ऐसी टीम खड़ी कर पाते हैं जो वर्ल्ड कप में क्वालिफाई कर सके। अब तो इसके लिए विदेशी प्रशिक्षक भी रखे जा रहे हैं। भारत में फुटबॉल तभी ज्यादा लोकप्रिय हो सकेगा जब हम बड़े इवेंट में भाग ले सकें।
अगर ओलंपिक की बात करें तो हमें हॉकी से ज्यादा उम्मीदें रहती हैं। लेकिन इन उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। अगर हम टीम इवेंट की जगह व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा पर ज्यादा ध्यान दें तो हमें ज्यादा मेडल मिल सकता है क्योंकि टीम इवेंट में एक मेडल के पीछे ग्यारह खिलाड़ी होते हैं जबकि अन्य इवेंट जैसे टेनिस, बैडमिंटन, तीरंदाजी, दौड़ आदि में एक या दो खिलाड़ी मिलकर कई मेडल जीत सकते हैं। जैसे माईकल फेल्प्स को ही लें वह आठ-आठ स्वर्ण अकेले जीत लेते हैं। हमारा पड़ोसी देश चीन भी फुटबॉल में कुछ खास नहीं कर सका है लेकिन ओलंपिक में उसका दबदबा रहता है। इसका कारण है कि वहां सिंगल इवेंट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। हमें भी भीड़ के पीछे नहीं भागना चाहिए। जहां जिस खेल में लोगों की रूचि हो वहां उसे ही बढ़ावा देना चाहिए। अगर हर राज्य अपने यहां एक-एक खेलों को ही बढ़ावा देने में लग जाएं तो हम कई मेडल जीत सकते हैं। जैसे हरियाणा में बॉक्सिंग का क्रेज बढ़ता जा रहा है और इसे वहां बढ़ावा भी दिया जा रहा है। इसी तरह अन्य राज्यों को भी यह मॉडल अपनाना चाहिए।
हमारी यह मानसिकता है कि हम ऐसा सोंचते हैं कि देश में जो भी क्रांतिकारी हो, खिलाड़ी हो या समाज सुधारक हो वह हमारे पड़ोस में हो। हमारे बच्चे तो डॉक्टर, इंजीनियर बनें। हम कोई भी अच्छी पहल खुद से नहीं करना चाहते हैं। अब ऐसे में हम कैसे मेडल जीतने की सोंच सकते हैं।

Sunday, July 11, 2010

राजनीति में यह कैसी नीति


रामविलास पासवान नें राज्यसभा में पहुंचने के साथ ही ऐलान कर दिया कि वह केंद्र में मंत्री नहीं बनेंगे। ऐसा लगा कि जैसे उन्हें कोई मंत्री पद का ऑफर मिल रहा था और वह कोई बड़ा त्याग कर रहे हैं। रामविलास जी के पार्टी का लोकसभा में कोई सदस्य नहीं है। राजद के कुछ सदस्य हैं भी तो कांग्रेस नें उन्हें कोई भाव नहीं दिया तो रामविलास जी को क्यों भाव देने लगे। उन्होंने लगे हाथ यह घोषणा भी कर डाली कि 10 तारीख को महंगाई के खिलाफ बिहार बंद रहेगा।
अब यह बात समझ से परे है कि जब पिछले ही दिनों विपक्षी पार्टियों ने मिलकर भारत बंद करवाया था तब उस समय लालू और पासवान जी ने उस बंद का समर्थन क्यों नहीं किया था? जब मुद्दा एक ही था तो क्या एक दिन भी ये लोग क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर साथ काम नहीं कर सकते? और फिर महंगाई के खिलाफ सिर्फ बिहार बंद ही क्यों?
कुछ महिने पहले ही जब विपक्ष ने महंगाई के खिलाफ कटौती प्रस्ताव लाया था तब भी लालू जी ने इसका समर्थन नहीं किया था और बाद में इसके खिलाफ सड़क पर धरना-प्रदर्शन करके लोगों को परेशान किया था। कल भी इन लोगों ने लोगों को परेशान करने के अलावा कुछ नहीं किया।
कल मैं टेलीफोन से एक सर्वे कर रहा था। मेरी बात छपरा के महबूब हुसैन से हो रही थी, जो पेशे से दर्जी हैं और किसी तरह महिने में तीन हजार रूपये कमा पाते हैं। मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे जैसे कि पिछले एक साल में आपका जीवन स्तर सुधरा है या नहीं? आगे एक साल में आपको अपने जीवन स्तर में सुघार की कोई उम्मीद है या नहीं? इस समय देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है? आदि। उनका जवाब था कि देश में महंगाई जिस रफ्तार से बढ़ती जा रही है उससे तीन हजार रूपये में घर चलाना मुश्किल हो गया है। जीवन स्तर पहले से खराब ही हुआ है और यही हालात रहे तो आगे और बदतर ही होगी। महबूब हुसैन इस बात से भी खफा थे कि कल बिहार बंद था और वह बिना कोई काम के खाली बैठे थे। जो भी थोड़ा बहुत वह रोज कमा कर रात की रोटी का इंतजाम करते थे वो शायद कल नहीं हो पाता।
मैंने सर्वे के दौरान जितने भी लोगों से बात की उनमें अधिकांश को महंगाई ही देश की सबसे बड़ी समस्या लगी। लोग महंगाई से परेशान दिखे। लेकिन बिहार के लोगों को बंद से भी परेशानी रही और हो भी क्यों नहीं? एक ही मुद्दे पर अलग-अलग दल अलग-अलग दिन बंद का आयोजन करेंगे तो परेशानी तो होगी ही। इसके अलावा बंद अगर शांतिपूर्ण और स्वेक्षा से हो तो कोई बात नहीं लेकिन आजकल बंदी में अगर कहीं आग न लगाया जाए या तोड़फोड़ नहीं किया जाए तो फिर यह बंद कैसा?
अगर साल में दो-चार बार किसी गंभीर समस्या को लेकर जिस समस्या में जनता पिस कर रह गई है तो बंद होना जरूरी है। यह सरकार को आगाह करने और विरोध करने का माध्यम है। लेकिन इसपर सभी दलों में सहमति होनी चाहिए और जनता का हित सर्वोपरि होना चाहिए। लालू-पासवान जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसमें उनकी हित ही ज्यादा नजर आता है और इस तरीके की राजनीति से उनका कोई भला नहीं होने वाला उलटे उनका नुकसान ही होगा। क्योंकि जनता सब देख रही है और जनता की नजर में ये लोग एक्सपोज ही हो रहे हैं।
अब राजनीति में एक दूसरे चलन की बात कर लेते हैं। पिछले दिनों पूर्व सांसद और मंत्री तस्लीमुद्दीन जेडीयू में शामिल हो गए। तस्लीमुद्दीन की छवि विवादास्पद रही है। विवादों के चलते उन्हें एकबार अपने मंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ा था। उस समय जेडीयू ने उनका तगड़ा विरोध किया था। उस समय तस्मीमुद्दीन साहब बिहार के 'जंगलराज' के सिपाही थे और अब वह नीतीश कुमार के मुस्लिम वोट बैंक की सुरक्षा करने उनके सुशासन में शामिल हो गए हैं । नीतीश जी को इन दिनों भाजपा के साथ और नरेंद्र मोदी के बिहार चुनाव में संभावित प्रचार से अपने इस वोट बैंक की ज्यादा फिक्र हो रही है। इसके पहले भी राजद के कुछ लोग जेडीयू में शामिल हो चुके हैं। फिर इससे राजद और जेडीयू में क्या फर्क रह जाता है? जेडीयू तो कोई गंगा नहीं है जिसमें नहा कर लोग पवित्र हो जाएंगे और उनके सारे पाप धुल जाएंगे। राजनीति में बस सिर्फ यही नीति बच गई है कि जिससे अपना उल्लू सीघा हो वही नीति सच बाकी सब झूठ।

Tuesday, July 6, 2010

बंद पर बहस

महंगाई को लेकर विपक्ष का भारत बंद सफल रहा। इसपर अब बहस गरमाने लगी है कि भारत बंद करना सही था या नहीं? हिन्दुस्तान ने इसी खबर को अपनी आज की लीड बनाते हुए शीर्षक दिया है क्या मिला। पत्र ने बंद से होने वाले नुक्सान का आंकड़ा दिया है। पत्र ने अपने 'दो टूक' में लिखा है कि बंद सफल रहा। लेकिन यह बंद किसके खिलाफ था? जाहिर है केंद्र सरकार। लेकिन इसका खामियाजा किसको भुगतना पड़ा? आम आदमी को। बड़ी अजीब बात है कि मुद्दा आम आदमी का और निशाने पर भी वही। क्या विरोध का कोई रास्ता नहीं रह गया है? आगे पत्र विरोध का तरीका बताता है कि आपका कोई नेता अनशन पर बैठ जाता। अधिक से अधिक क्या होता? भूख से मर जाता। लेकिन तब ऐसा तूफान उठ खड़ा होता जिससे सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ती।

हिंदुस्तान कांग्रेसी विचारधारा वाला अखबार है, इसलिए उससे सरकार के मुखर विरोध की आशा नहीं कर सकते हैं। लेकिन गंभीर मुद्दे पर इस प्रकार की निर्लज भाषा की भी उम्मीद नहीं कर सकते हैं। किसी भी मामले में किसी भी व्यक्ति को जान देने के लिए कैसे कह सकते हैं? नेता भी तो हमारे ही समाज का हिस्सा हैं। क्या उनकी जान सस्ती है?
यह बात यही है कि बंद से आम जनजीवन प्रभावित होता है। हजारों करोड़ का नुकसान होता है। बंद के दौरान इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि आवश्यक सेवाओं पर कोई बाधा नहीं पड़े। साथ ही बसों, ट्रेनों और सार्वजनिक या किसी की निजी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। बंद स्वेच्छा से हो न कि जबरन। बात-बात पर बंद भी सही नहीं है।
लेकिन जिस तरह से महंगाई बढ़ती जा रही है और सरकार हाथ पर हाथ धरे तमाशा देख रही है। सरकार की ओर से जनता को महज आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला है। सरकार के मंत्री को आम जनता के हितों से ज्यादा क्रिकेट का हित प्यारा है। ऐसी हालात में विरोध का यह स्वरूप जायज था। सरकार अभी तक इसलिए निश्चिंत बैठी है कि विरोध का कोई हल्का सा भी स्वर उसके बहरे कानों तक नहीं पहुंच पा रही है। सरकार को लगता है कि मनमानी करते जाओ विपक्ष तो बंटा हुआ है ऐसे में सरकार को कौन हिला सकता है। ऐसे समय में इस गंभीर मसले पर विपक्ष की एकजुटता का प्रदर्शन जरूरी था और अगर यह नहीं होता तो यही लोग विपक्ष को ही कोस रहे होते कि जनता महंगाई से मर रही है और विपक्ष सोया हुआ है।
यह कहना कि आम आदमी के हितों के लिए आम आदमी को परेशान किया गया सही नहीं है। आखिर इतने बड़े मसले पर कुछ तो त्याग करना ही होगा। दिहाड़ी पर कमाने वाला मजदूर एक दिन थोड़ा कम कमाया यह तो दिखता है लेकिन वही मजदूर जब दिहाड़ी कमा कर घर लौटता है और महंगाई की वजह से उतने रकम में घर की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाता है, तब इस पर कोई चर्चा नहीं होती है। आंकड़ों में तो दिखा दिया गया कि इतने हजार करोड़ का नुकसान हो गया। इन आंकड़ों में कितनी हकीकत होती है और इस बात पर क्यों नहीं बहस होती है कि सरकारी लापरवाही से बंदरगाहों या गोदामों में अनाज सड़ते रहते हैं और बाजार में इनकी कमी से वस्तुओं की कीमतें आसमान छूती हैं। इससे होने वाले नुकसान के बारे में क्या कहेंगे?
जहां तक बंद से कुछ मिलने ना मिलने का सवाल है, यह जरूरी नहीं है कि किसी भी चीज का परिणाम एक ही दिन में हासिल हो जाए और न ही किसी काम को यह सोंचकर नहीं रोक सकते हैं कि इसमें हम असफल हो जाएंगे। आज विरोध का एक स्वर उभरा है। कल को हो सकता है पूरी जनता ही सड़क पर आ जाए। ऐसे हालात में सरकार को सोंचने पर मजबूर होना पड़ेगा।

Saturday, July 3, 2010

दो नावों की सवारी

शरद पवार आईसीसी के अध्यक्ष बन गए हैं। इस बात से खुशी भी होती है और दुख भी होता है। खुशी इस बात की है कि एक भारतीय इस संस्था का मुखिया है और दुख इस बात का है कि पवार साहब क्रिकेट देखेंगे या कृषि मंत्रालय। वह भारत में रहेंगे या विदेशों में। कृषि मंत्रालय से आम आदमी का हित जुड़ा हुआ रहता है, इसलिए चिंता होना स्वाभाविक है।
आगामी विश्व कप भारतीय उप महाद्वीप में ही होना है। ऐसे में पवार साहब का अध्यक्ष बनना अच्छी खबर है। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अकसर एशियाई खिलाड़ियों के साथ पक्षपात होता है। उन्हें छोटी सी गलती पर भी बड़ी सजा दे दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में एक एशियाई अध्यक्ष के रहने पर बात कुछ और ही होगी।
लेकिन चिंता का विषय यह है कि जिस तरह से मंहगाई बढ़ती जा रही है। खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं। कालाबाजारी बढ़ती जा रही है। गोदामों और बंदरगाहों पर धान और गेहूं सड़ते रहते हैं और सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही है। किसानों की आत्महत्या की घटना बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में आम जनता के सरकार राज में आम जन के हितों की अनदेखी कर खास लोगों के खेल में शामिल होना या किसानों का ख्याल न रखकर क्रिकेट का ख्याल रखना कहां तक जायज है?
पवार साहब पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो एक ही साथ आईसीसी के अध्यक्ष और किसी सरकार में मंत्री भी हैं। आईसीसी एक धनवान संस्था है और इसका प्रसार धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। क्रिकेट मैंचों की भी संख्या भी बढ़ती ही चली जा रही है। ऐसे में अध्यक्ष होने के नाते उन्हें अधिक से अधिक समय विदेशी दौरे में बिताना होगा। आईसीसी का मुख्यालय भी विदेश में ही है। ऐसे में अगर क्रिकेट को ज्यादा समय देते हैं तो कृषि मंत्रालय के साथ अन्याय होगा और अगर मंत्रालय पर ध्यान देते हैं तो क्रिकेट के साथ न्याय नहीं होगा। आईसीसी का प्रशासक होना शुद्ध व्यावसायिक काम है तो कृषि मंत्रालय चलाना कल्याणकारी काम। अब पवार साहब पर ही निर्भर है कि वह पैसे को तरजीह देते हैं या लोगों के कल्याण को। कम से कम पवार साहब दो नावों की सवारी तो ना ही करें। भगवान के लिए वह क्रिकेट या किसान, दोनों में से एक को बक्श दें।

Friday, July 2, 2010

'नाम' की राजनीति

कहते हैं कि नाम में क्या रखा है। लेकिन मायावती जी के लिए नाम में बहुत कुछ रखा है। या यूं कहें कि नाम में ही सब कुछ रखा है। इसलिए मायावती नाम की राजनीति कर रही हैं। सच में मायावती जी नाम की राजनीति से ऊपर उठ ही नहीं सकी हैं। उन्होंने अमेठी को जिला बना दिया लेकिन इसका नाम बदलकर क्षत्रपति साहूजी महाराज नगर कर दिया। यह राहुल बाबा की दलितों की राजनीति को माया के अंदाज में काट है।
राहुल गांधी जिस तरह से दलितों के घर में जाते हैं, उनके साथ खाना खाते हैं और जिस तरह से उनकी यू.पी. में लोकप्रियता बढ़ रही है इससे माया का बौखलाना स्वाभाविक है। मायावती ने पहले भी इसी तरह कई जिलों का नाम बदला था। भले ही इससे इन जिलों का भाग्य नहीं बदला हो। लेकिन माया को तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। वह तो अपने ही धुन में रहती हैं।

किसी जगह का नाम उस जगह की पहचान होती है। उसका वहां के इतिहास से जुड़ाव रहता है। नाम बदलने का मतलब है उस पहचान को नष्ट करना। लोग जितना किसी खास नाम से जुड़ाव महसूस करते हैं उतना नए नाम से नहीं कर पाते हैं।
माया जी को अगर पिछड़े लोगों को ऊपर उठाना है और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना है तो उन्हें इसके लिए विकास का एक विस्तृत खाका तैयार करना होगा और उसपर अमल करना होगा। लोगों को बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर मुहैया करवाना होगा. तभी जाकर उनका उत्थान होगा। शहरों के नाम बदलने या पार्क बनाने से लोगों का भला नहीं होने वाला है। जितना पैसा पार्क पर खर्च किया जा रहा है उतना अगर स्कूल बनाने पर खर्च किया जाए तो वहां से एक बेहतर पौध तैयार होगी जो सबल, सक्षम और आत्मनिर्भर होगी और जिसे अपने उत्थान के लिए किसी नेता की आवश्यकता नहीं होगी।

राजनीति में ताल ठोंकने के लिए तैयार एक और ठाकरे

ठाकरे परिवार की एक और पीढ़ी ने राजनीति में कदम रख दिया है। बाला साहब के पोते और उद्धव ठाकरे के लड़के आदित्य भी राजनीति के मैदान में कूद पड़े हैं। आदित्य ने मुंबई में पोस्टर लगवाया जिसमें महापुरूषों के नाम के साथ उनकी जाति लिखी हुई थी, जैसे- बाल गंगाधर ब्राह्मण तिलक, ज्योतिबा माली फुले आदि। इस पोस्टर में जाति आधारित जनगणना का विरोध करते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा गया।
भारतीय विद्यार्थी सेना के लेटर हेड पर जारी बयान में आदित्य ने कहा कि शिवसेना हमेशा जाति आधारित राजनीति का विरोध करती रही है। शिवसेना ने मराठी माणुष के हितों के लिए हमेशा संघर्ष किया है। मराठी कोई जात या धर्म नहीं है। महाराष्ट्र में मराठी और हिंदुस्तान में हिंदुओं के हित के लिए शिवसेना लड़ती रही है इसलिए उसे जाति आधारित जनगणना मान्य नहीं है।
आगे आदित्य अपील करते हुए कहते हैं कि भारतीयता ही हमारा धर्म और जाति है। भारतीयता का झंडा हमें बुलंदी से फहराना है।
आदित्य ने एक गंभीर विषय को चुना है। आज के राजनीतिक दौर में जातियता, क्षेत्रियता और वंशवाद हावी हैं। अगर इन तीनों को हटा दिया जाए तो बड़े-बड़े दिग्गजों की राजनीतिक जमीन खिसक जाएगी। कोई ऐसा राज्य नहीं होगा जहां ये तीनों फैक्टर काम नहीं करते हों। लेकिन क्या आदित्य क्षेत्रियता और वंशवाद पर भी कुछ बोलेंगें? क्या वह मराठी और गैर मराठी की राजनीति को रोक पाएंगे? एक तरफ तो वह भारतीयता को अपना धर्म बतलाते हैं लेकिन साथ ही यह भी कहना नहीं भूलते कि शिवसेना ने महाराष्ट्र में मराठियों और हिंदुस्तान में हिंदुओं के लिए संघर्ष करती है। आदित्य मराठी और गैर मराठी या हिंदु-मुस्लिम से ऊपर क्यों नहीं उठ पाए? आदित्य अगर सब को साथ में लेकर चलने की बात करते तो उसका ज्यादा स्वागत होता। आखिर 19 वर्षीय युवा और संत जेवियर कॉलेज के छात्र से तो इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

Wednesday, June 30, 2010

नासूर बनता नक्सलवाद


एक बार फिर छत्तीसगढ़ की धरती हुई लाल। फिर बहा बेगुनाहों का खून। अन्य राज्यों को अगर छोड़ भी दें तो यह पिछले तीन महिनों में छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का चौथा बड़ा हमला है। कब थमेगा यह मौत का तांडव? कब तक होती रहेगी धरती खून से यूं ही लाल? आखिर कब होगा इस नासूर का इलाज?
हमारे यहां की यह समस्या है कि हम न तो ठीक से सो ही पाते हैं और न ठीक से जाग ही पाते हैं। हम सिर्फ उंघते रहते हैं। जब कोई बड़ी वारदात हो जाती है तब जाकर थोड़ी देर के लिए हमारी नींद खुलती है। हम समस्या के समाधान के लिए कुछ करते नहीं हैं क्योंकि काम करने की जगह बातें करना हमें ज्यादा रास आता है। सो थोड़ा इस मुद्दे पर बहस होती है फिर हमें जम्हाई आने लगती है।
इस मुद्दे पर बड़ी-बड़ी बहस पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। कोई कहता है कि सेना की मदद से नक्सलियों को कुचल देना चाहिए तो कोई कहता है कि नक्सली व्यवस्था के शिकार हैं। कोई कहता है कि नक्सली बनते नहीं बनाए जाते हैं। नेता लोग भी इस आग पर अपनी रोटी सेंकते हैं।
ठीक है कि नक्सली बनते नहीं बनाए जाते हैं और इस समस्या के लिए सरकार बराबर की दोषी है। आखिर सरकार ने इन इलाकों से संसाधनों का जितना दोहन किया उसकी तुलना में आधा पैसा भी विकास के लिए क्यों नहीं खर्च किया? क्या सरकार सिर्फ दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों की ही प्रतिनिधित्व करती है? इन पिछड़े इलाके के लोग उसकी जनता नहीं हैं? लेकिन क्या एक गलती तो दूसरी गलती करके सुधारा जा सकता है? क्या नक्सली विचारधारा में भटकाव नहीं आया है और क्या अब नक्सली व्यवस्था से कम जबरन ज्यादा नहीं बनाए जा रहे हैं? आखिर क्या वजह थी कि नक्सली नेता कानू सांन्याल का इस विचारधारा से मोहभंग हो गया? आखिर क्यों उन्होंने मौत को गले लगा लिया? क्या खून बहाने से ही इस समस्या का समाधान हो जाएगा?
बिल्कुल नहीं एक गलती के बदले दूसरी गलती को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। बेगुनाहों का खून बहाने के बाद नक्सली सहानुभूति के काबिल नहीं रह जाते हैं। नक्सली लोग अपने इलाकों में चलने वाली योजनाओं को पूरा होने देने के एवज में जितना टैक्स वसूलते हैं उसका कितना हिस्सा वहां के लोगों पर खर्च करते हैं। उनका सारा खर्च हथियारों की खरीद और बेरोजगारों को बहला-फुसला कर अपने नेटवर्क में शामिल करने में होता है। नक्सली तर्क दे सकते हैं कि वह बेरोजगारों को रोजगार दे रहे हैं लेकिन क्या यह उनका शोषण और मजबूरी का फायदा उठाना नहीं है?
सरकार नक्सल प्रभावित 34 जिलों के लिए 3400 करोड़ रू. का स्पेशल पैकेज देने की योजना बना रही है। लेकिन सरकार के ही धड़े में मतभेद है कि इस योजना को सीधे केंद्र सरकार लागू करे या राज्य सरकारों के माध्यम से। सरकार ने बिना कोई ठोस नीति या रणनीति बनाए ही अपने जवानों को इसी तरह मरने के लिए छोड़ दिया है। सरकार को चाहिए कि इन पिछड़े इलाकों के विकास के लिए न केवल ठोस योजना बनाए बल्कि इस बात को भी सुनिश्चित करे कि ये योजनाएं सही तरह से पूरी हों और लोगों को इसका लाभ मिले। साथ ही नक्सलियों को मुख्यधार में लाने का भी प्रयास होना चाहिए और जो नहीं आना चाहते हैं उनके लिए भी ठोस रणनीति बनानी चाहिए। इसके लिए स्पेशल फोर्स बने जो जंगल वार की कला में दक्ष हों। किसी भी हाल में जवानों को बिना ट्रेनिंग के अभियान के लिए नहीं भेजना चाहिए।

Tuesday, June 29, 2010

दिग्विजय सिंह का जाना और बिहार की वर्तमान राजनीति



24 जून को दोपहर में मेरे भाई का फोन आया कि दिग्विजय बाबू नहीं रहे। लंदन के एक अस्पताल में हफ्ते भर जिंदगी और मौत से जूझते हुए जिंदगी आखिर हार ही गई। कुछ पल के लिए तो जैसे सांस ही थम गया। यकीन ही नहीं हो रहा था कि दिग्विजय जी इस तरह हमें छोड़कर जा सकते हैं। कुछ दृश्य फ्लैश बैक की तरह आंखों के सामने आने लगे।
दिग्विजय जी को मैंने पहली बार 1991 में देखा था, जब वह अपने चुनावी प्रचार के सिलसिले में मेरे गांव आए थे। उनके व्यक्तित्व और उनके भाषण की शैली ने मुझे खासा प्रभावित किया था। मैं उस छोटा था। मैंने किसी तरह उनके प्रचार वाला स्टीकर जुगाड़ किया था, जो आज भी मेरे किसी किताब में छुपा होगा।
हालांकि उस चुनाव में दिग्विजय जी चौथे नंबर पर रहे। लेकिन इस हार से वह कहां हारने वाले थे। उन्होंने जनता से संपर्क बनाए रखा। बराबर इलाके का दौरा करते रहे। फिर जब 1996 में लोकसभा का चुनाव हुआ तो समता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़कर बहुत ही कम मतों के अंतर से हार गए। लेकिन वह कहां थकने वाले थे। जुझारूपन तो उनके रग-रग में बसा हुआ था। फिर 1998 और 1999 में वह लोकसभा का चुनाव जीतकर आए। 1999-2004 में वह एनडीए सरकार में वह रेलवे, उद्योग और विदेश मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे। उनके ही प्रयास से बांका आज रेलवे के मानचित्र पर आ पाया है। रेल मंत्री रहते हुए वह देश में बुलेट ट्रेन चलाने की बात करते थे। लेकिन वह कम समय तक ही रेलवे में रह पाए। यह सपना आज भी सपने की ही तरह है।
पिछले लोकसभा चुनाव में जब उन्हें जेडीयू से टिकट नहीं मिला तो उन्होंने बगावत कर निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा। क्षेत्र की जनता ने भी इसे अपने स्वाभिमान पर लिया और उन्हें चुनकर भेजा। उनकी स्वच्छ छवि, देशी-विदेशी मामलों पर उनकी पकड़ और इलाके के विकास का काम उन्हें लोकप्रिय बनाता था। ऐसा नेता पूरे क्षेत्र में नहीं था या यूं कहें कि बिहार में कम ही नेता हैं जिनमें इतने सारे गुण एक साथ मौजूद हों।
बिहार में विधान सभा के चुनाव इसी साल होने वाले हैं। बिहार में इस समय राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति बनने जा रही है। कांग्रेस की हालत नाजुक है, राजद के 15 साल के शासन को लोगों ने देख लिया है, राम विलास पासवान की 2005 के चुनाव में हठधर्मिता की वजह ने बिहार पर एक बार फिर चुनाव थोपा। इसलिए अगले विधान सभा और लोकसभा चुनावों में जनता ने उन्हें नकार दिया। सत्ता सुख भोगने के बाद भाजपा की हालत तो और भी खराब हो जाती है, उसमें संघर्ष की क्षमता खत्म हो जाती है। वह किसी भी तरह सत्ता में बनी रहना चाहती है चाहे इसके लिए कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। इसी का खामियाजा उसे यू.पी. में उठाना पड़ा। वहां उसे ऐसी पटकनी मिली कि वह अभी तक ठीक से संभल नहीं पाई है। इसी तरह उसे डीएमके, एआईएडीएमके,बीजद आदि दलों ने समय-समय पर ठेंगा दिखाया। अभी हाल ही में भाजपा और नीतीश कुमार में जो तकरार हुआ, भाजपा ने एक तरह से वहां आत्मसमर्पण ही कर दिया है। यह तो एक चेतावनी भर है, अगर नीतीश कुमार अकेले दम पर जैसी की उम्मीद भी है, बहुमत पाते हैं या बहुमत के करीब पहुंचते हैं तो उन्हें भाजपा को दरकिनार करने में जरा भी देरी नहीं लगेगी।
यह बात सही है कि नितीश कुमार ने बिहार के विकास के लिए काम किया है। बिहार में जंगल राज से कानून का राज कायम हुआ है। बिहार के विकास ने गति पकड़ी है। विकास में बिहार का नाम भी होने लगा है। लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है। यह बात सही है कि विकास की दौड़ में उल्टा दौड़ रहे बिहार को इतनी जल्दी आगे ले जाना मुश्किल है। इसमें अभी समय लगेगा। लेकिन यह भी सही है कि इन पांच वर्षों में बहुत कुछ किया जा सकता था। शिक्षा के क्षेत्र में देखें तो शिक्षामित्रों की बहाली का आधार प्रतियोगिता नहीं था। इससे बिहार के स्कूलों में तैयार हो रही एक नई पौध को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित कर दिया गया। इसी तरह स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखें तो आज भी लोग अच्छे इलाज के लिए दिल्ली, वेल्लौर आदि शहरों का रूख करते हैं। यही हाल बिजली और पानी का भी है।
सत्ता के सफल संचालन के लिए सत्तापक्ष का मजबूत होना जरूरी होता है लेकिन जब राजनीति में विकल्पहीनता की स्थिति होती है तो सत्ता पक्ष को तानाशाह बनते देर नहीं लगती। सत्ता पक्ष को हमेशा यह महसूस होना चाहिए कि अगर उसने काम नहीं किया तो जनता दूसरा विकल्प चुन लेगी। नीतीश जी के दल के कई लोग उनसे नहीं बनने के कारण पहले भी दल छोड़कर चले गए। अपनी आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाना और छोटे-छोटे मुद्दों पर रिएक्ट करना उनकी मुख्य कमजोरी है। बाढ़ राहत मुद्दे पर उनका रूख और मौजूदा राजनीतिक हालात से डर लगता है कि कहीं आगे चलकर नीतीश जी भी तानाशाह का रूख न अख्तियार कर लें।
दिग्विजय सिंह ने एक अलग मोर्चा बनाया था। लंदन जाने के पहले उन्होंने कहा था कि वहां से लौटकर बिहार विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाई जाएगी, लेकिन वह लौटकर नहीं आ पाए। दिग्विजय सिंह बिहार के चुनाव में कितना अहम भूमिका निभाते यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन उनका जुझारूपन, उनकी छवि बिहार में आगे एक बढिया विकल्प प्रस्तुत कर सकती थी।

Sunday, June 27, 2010

मोहब्बत, मूंछ और मर्डर




पिछले साल एक गाना आया था, "ये दिल्ली है मेरी यार, बस इश्क मोहब्बत, प्यार।" कोरस था, "कैसी है दिवानों की दिल्ली...दिल्ली।" दिल्ली में इन दिनों जो कुछ भी हो रहा है अगर यूं ही चलता रहा तो न तो दिल्ली दिवानो के लिए रह जाएगी और न दिल्ली में दिवाने ही बचेंगे।
दिलवालों की दिल्ली में दिल लगाने की सजा मौत है। पिछले सफ्ताह की प्रेमियों की हत्याएं तो यही दर्शाती है। पहले भी कई इलाकों में ऐसी हत्याएं हो चुकी हैं और आगे भी प्रेमियों पर खतरा मंडरा रहा है। ऐसी घटनाएं इसलिए भी अधिक चौंका रही हैं क्योंकि यह सब अब देश की राजधानी में होने लगा है और हत्यारे कम उम्र के युवा हैं जिन्हें नए विचारों से लैस होना चाहिए और जिन पर समाज को दिशा देने की जिम्मेदारी होती है। लेकिन वह खुद दिग्भ्रमित हो रहे हैं।
आखिर हम किस युग में जी रहे हैं? इस समस्या की जड़ कहां है? कुछ लोग इसे आदिम मानसिकता कहते हैं। लेकिन इसे आदिम कैसे कहें? प्राचीन काल, आदिम युग, कबिलाई या आदिवासी समाज में तो प्रेम के लिए हत्या का कोई विधान नहीं मिलता। पहले तो स्वंवर या गंधर्व विवाह लड़कियों को अपने मनपसंद वर का चयन करने का हक देते थे।
आदिवासी समाज भी प्रेमियों को विवाह के बंधन में बंधने का मौका देता है। हमारे इतिहास में तो प्रेम प्रसंगो के आख्यान भरे पड़े हैं।
ऐसी हत्याओं को ऑनर किलिंग का नाम दिया जाता है। अब इस नाम पर आपत्ति और विरोध व्यक्त किया जा रहा है जो सही भी है। इसे यह नाम कैसे दिया जा सकता है? क्या इस तरह की हत्या से इज्जत आ जाती है या बढ़ जाती है? लेकिन इन नासमझों को कौन समझाए कि किसी समस्या का समाधान हत्या नहीं होता और हत्या करने से उनका भी जीवन बर्बाद होता है और बची-खुची इज्जत भी चली जाती है। शायद प्रेम और शांति की भाषा इनके समझ से परे है।
कुछ लोग परंपरा का हवाला देते हैं। पर क्या यह एक समान चलती रहती है? परंपराएं तो बनती बिगड़ती रहती हैं। अक्ससर कोई विचार धीरे-धीरे परंपरा का रूप धारण कर लेती है और लोग उससे चिपक जाते हैं। इसके खिलाफ कोई भी तर्क उन्हें गंवारा नहीं होता। इसका खिलाफत करने वालों से इन्हें खतरा महसूस होता है। उन्हें अपने सत्ता पर चुनौती नजर आती है और इसे बचाने के लिए वह कुछ भी करने से नहीं हिचकते। ठीक यही बात तो बंगाल में भी रही होगी। वहां भी तो सती प्रथा को लोग अपना परंपरा बता रहे थे और राजा राममोहन राय ने जब इसके खिलाफ अपना आवाज बुलंद किया तो उन्हें भी समाज के ठेकेदारों का निशाना बनना पड़ा। इसी तरह विधवा विवाह आदि अन्य सामाजिक कुरीतियों के मामले में भी हुआ। आज हम उन समाज सुधारकों का गुणगान करते नहीं थकते जिन्होंने उस समय के परंपरा और रिवाज को चुनौती दी और जिन्हें इसके लिए प्रताड़ित किया गया। फिर आज जब ऐसी समस्या हमारे सामने नए संस्करण में सामने है तो फिर हम परंपरा के नाम पर कैसे इससे मुंह फेर सकते हैं?
हत्या तो आखिर हत्या ही है फिर चाहे इसे कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए। इसके लिए हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए और इसे रोकने के लिए कुछ वैसे ही उपाय करने चाहिए जैसा कि अंग्रेजों ने सती प्रथा को समाप्त करने के लिए किया था। साथ ही ऐसे फरमान जारी करने वाले पंचायतों के खिलाफ सानूहिक जुर्माना, सरकारी मदद से वंचित करना, मताधिकार को रद्द करना जैसे कुछ कदम उठाने होंगे। साथ ही उन्हें समझाने का काम भी समानांतर रूप से जारी रखना होगा।

Saturday, June 26, 2010

बात आधी आबादी की

जब हम टी. वी. ऑन करते हैं तो न्यूज़ चैनलों पर सोनिया गाँधी और हिलेरी क्लिंटन को हाथ मिलते हुए देखते हैं या सायना नेहवाल को सिंगापुर ओपन जीत कर वर्ल्ड रैंकिंग में तीसरे पायदान पर पहुँचते हुए देखते हैं। जब हम चैनल बदलते हैं तो एक दूसरी खबर आ रही होती है ' दहेज़ के नाम पर विवाहिता की हत्या ' या युवती के संग गैंग रेप कर जिन्दा जलाया।' दोनों ही खबरें हमारे देश के वर्तमान की सच्चाई है। अब सवाल उठता है कि महिला सशक्तिकरण कहाँ है? और क्या यह समस्या इंडिया-भारत गैप को बयां करता है ? लोग अक्सर अपने पुरातन का गुणगान करते हैं। यह सही है कि वैदिक समाज उदार था। इस काल में अनेक विदुषी महिलायें हुईं, जिन्होंने वैदिक मन्त्रों की रचना की। उन्हें ऋषि की उपाधि दी गई। लेकिन क्या महिलायें पूर्ण रूप से सशक्त हो पायीं? वृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्य और गार्गी की कथा है। राजा जनक के दरबार में शास्त्रार्थ होता है। याज्ञवल्क्य सभी पंडितों को हरा देते हैं। उसी समय गार्गी उन्हें चुनौती देती है। याज्ञवल्क्य उसे डांट कर चुप करा देते हैं कि चुप रहो स्त्रियों को बहस नहीं करना चाहिए। एक और विदुषी महिला की कहानी सुनिए। अगस्त्य ऋषि ने अपने शिष्य को अपनी पत्नी लोपामुद्रा को उत्तर भारत से लाने के लिए भेजा। साथ ही हिदायत भी दी कि दोनों के बीच न्यूनतम दूरी बनाये रखी जाये। लेकिन लौटते समय वैगई नदी की बाढ़ में लोपामुद्रा डूबने लगीं तो शिष्य ने उन्हें बचाया। यह बात जब अगस्तय ऋषि को मालूम पड़ी तो उन्होंने दोनों को शाप दे दिया। यह तो वैदिक काल की तस्वीर है। आगे चलकर समाज में उनकी स्थिति गिरती ही चली गयी।
एक तरफ तो कहा गया कि 'यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' वहीँ दूसरी और कहाँ गया कि स्त्रियों को बचपन में अपने पिता पर, शादी के बाद पति पर और बुढ़ापे में बेटे पर आश्रित रहना चाहिए। सल्तनत काल कि पहली महिला शासक रजिया के पतन का भी कारण उसका महिला होना ही था।
महिला सशक्तिकरण से आशय है महिलाओं का निर्णय लेने कि प्रक्रिया में भाग लेना। चाहे पंचायती स्तर पर हो या पार्लियामेंट के स्तर पर हो। महिलायें तभी सशक्त हो सकती हैं जब उन्हें निर्णय तंत्र में शामिल किया जाय।
महिलाओं के दुःख -दर्द को एक महिला ही समझ सकती हैं। महिला जब स्वस्थ, शिक्षित और सबल होंगी तभी परिवार और समाज भी उन्नति करेगा। 'दुनिया कि आधी आबादी' को निर्णय तंत्र में भागीदार बना कर हम न सिर्फ उनकी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, बल्कि इससे समाज को भी एक दिशा मिल सकती है।
अभी पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिया है और संसद में प्रक्रिया के स्तर पर है।महिला आरक्षण के विरोधी कहते हैं कि इससे केवल उच्च वर्ग कि महिलाओं को ही फायदा होगा। फिर कुछ लोग आरक्षण के अन्दर आरक्षण कि मांग करते हैं। महिलाओं को छोटे-छोटे वर्ग में बांटना सही नहीं है।पहले महिलाओं को जागरूक बनाना चाहिए और इस प्रक्रिया में जो भी आगे आती हैं उनका स्वागत करना चाहिए।
हम अपने को सभ्य कहते हैं, लेकिन हमें तब तक सभ्य कहलाने का हक़ नहीं है जब तक हम महिलाओं के प्रति पक्षपात बंद नहीं करते और परिवार और समाज में उन्ही बराबरी का दर्जा नहीं देते हैं। बस हमें अपनी सोंच बदलने कि जरूरत है. आइये इस दिशा में पहल करें।