Sunday, August 29, 2010

पानी, पानी रे पानी, पानी

पिछले दिनों जब दिल्ली बरसात में पानी-पानी हो रही ठीक उसी समय बिहार में लोग पानी-पानी चिल्ला रहे थे। दो साल पहले की ओर लौटें तो इसी समय बिहार बाढ़ से बेहाल था। पिछले साल भी मानसून दगा दे गया था। पिछले कुछ सालों में अगर देखें तो मानसून का रूठना जारी है, कभी तो बहुत ही ज्यादा बारिश और कभी कुछ भी नहीं। जिस इलाके में सूखा रहता था वहां बाढ़ आ जाती है और जहां बाढ़ की समस्या रहती थी वहां सूखा पड़ने लगा है।
कुछ साल पहले मुंबई में इतनी बारिश हुई कि चेरापूंजी का रिकार्ड टूट गया। कुछ साल पहले राजस्थान को भी बाढ़ की तबाही से दो-चार होना पड़ा था। दिल्ली में वर्षों बाद इतनी बारिश हुई है। वहीं बिहार में सूखा पड़ा है। अगर गौर करें तो लगता है कि मानसून का दिशा ही बदल गई है। अब इसका कारण अल निनो हो या ला निनो या फिर ग्लोबल वार्मिंग समय रहते अगर इस समस्या का हल नहीं ढूंढ़ा गया तो पानी के लिए लोग खून बहाएंगे।
दिल्ली जैसे शहरों में भले ही कितनी भी बारिश हुई हो लेकिन इससे भूजल का स्तर नहीं बढ़ा है। गाजियाबाद में एक तरफ लोग आसमान से बरसने वाली पानी से परेशान थे तो दूसरी ओर पीने के पानी के लिए भी तरस रहे थे। बाढ़ और सूखा जैसे आपदा प्रकृति के साथ-साथ मानव निर्मित भी होते जा रहे हैं। अत्यधिक शहरीकरण के कारण पुरानी जल प्रणालियां जैसे झील, तालाब आदि नष्ट होती जा रही हैं। मुंबई के जलमग्न होने की एक वजह मीठी नदी के जल मार्ग के साथ छेड़-छाड़ थी। नदियों या नहरों में गाद जमा होती रहती है लेकिन उसकी सफाई नहीं हो पाती है। आखिर ऐसे में बारिश का पानी कहां जाए। वह तो तबाही मचाएगी ही। पोखरों या झीलों को पाटकर हमने उस पर ऊंचे-ऊंचे महल-दोमहले खड़ा कर दिए हैं। इससे बरसात के पानी का सही सदुपयोग नहीं हो पाता है।
अब वक्त आ गया है कि हम पानी का प्रबंधन करना सीखें। बाढ़ से बचने के लिए पहले तो नदी-नाले और नहरों की सफाई तो करवाई ही जाए दूसरी ओर बरसात के पानी के सदुपयोग के लिए पोखरों और झीलों की भी समय-समय पर सफाई हो साथ ही रेन वाटर हारवेस्टिंग और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए वाटर रिफिलिंग जैसे उपाय करने होंगे। इसके लिए बहुत अधिक तामझाम करने की भी जरूरत नहीं है बस छतो से नीचे गिरने वाले पानी को पाइप के जरिए कुओं, हैंडपंपों या सॉकपीट के जरिए जमीन के अंदर पहुंचाना है। मुसीबत के समय सरकार की ओर मदद की आस लगाने के बजाय अगर हम खुद ये सब उपाय अपनाएं तो पीने के पानी की समस्या नहीं होगी। सरकार को भी चाहिए कि वह कुछ ठोस पहल करे। नदियों को जोड़ने की जो परियोजना चल रही है उसे समय से पूरा करे साथ ही ऐसे उपाय किए जाएं कि बाढ़ वाले इसाके के पानी का इस्तेमाल सूखा ग्रस्त इलाकों में किया जा सके। आपदा के समय करोड़ों के राहत पैकेज देने से अच्छा है कि आपदा आए ही नहीं इसके लिए समय रहते उपाए किए जाएं।

Sunday, August 22, 2010

सेवा नहीं सिर्फ मेवा की चिंता

पहले अपने देश में दो क्षेत्र ऐसे थे जिसमें सेवा भाव अधिक था। लेकिन बदलते जमाने के साथ इन दोनों क्षेत्रों को भी प्रोफेशनलिज्म और मैनेजमेंट ने अपने जबड़े में लिया है। मैं बात कर रहा हूं शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र की। अब यहां सेवा कम और मेवा पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

पिछले दिनों मुझे इन दोनों सेवाओं में बढ़ते व्यापार से सामना हुआ। पहले शिक्षा को लेते हैं। पिछले दिनों मेरे एक रिश्तेदार अपने बेटे के एडमिशन के लिए दिल्ली आए। मुझे भी उनके साथ स्कूल जाना पड़ा। स्कूल 'तथाकथित' इंटरनेशनल था। स्कूल दिल्ली के बाहरी इलाके में एक गांव में कई एकड़ में फैला था। स्कूल में अस्तबल, खेल के मैदान, स्विमिंग पुल आदि मौजूद थे। स्कूल का फीस तो लाख दो लाख था पर उनके बेटे ने दसवीं में A+ ग्रेड पाया था इसलिए उसे पूरा स्कॉलरशिप मिल गया था। ऐसा स्कूल इसलिए करते हैं कि अच्छे स्टूडेंट को लेने से उनका रिजल्ट अच्छा हो सके।

स्कूल में मैंने देखा कि इंजीनियरिंग और मेडिकल के कोचिंग सेंटर अपना स्टॉल लगा कर बैठे थे। कैंपस में भी कोचिंग की व्यवस्था थी और अगर कोई छात्र कोचिंग के लिए बाहर जाना चाहे तो उसे स्कूल बस से कोचिंग सेंटर लाने और ले जाने की व्यवस्था थी। उस कोचिंग वाले ने हमें समझाया कि आपका लड़का सुबह से दोपहर तक स्कूल में क्लास करेगा उसके बाद दोपहर से शाम तक बाहर कोचिंग करेगा और शाम में थका आएगा तो सेल्फ स्टडी कब कर पाएगा। उसने बताया कि अगर अपने बच्चे को कैंपस में ही कोचिंग में डलवा देते हैं तो स्कूल का क्लास नहीं करना पड़ेगा और ना ही कोचिंग के लिए बाहर जाना पड़ेगा। इस तरह सेल्फ स्टडी के लिए वक्त भी मिल जाएगा। इसके लिए स्कॉलरशिप की भी व्यवस्था थी लेकिन स्कॉलरशिप मिलने के बाद भी कोचिंग की फीस 75 हजार थी। मेरे मन में सवाल उठा कि जब कोचिंग में ही पढ़ाना है तो फिर बच्चे को लोग इतनी दूर क्यों लाते हैं और स्कूल की क्या भूमिका रह जाती है।

बहरहाल उस समय मेरे रिश्तेदार ने कोचिंग में बच्चे को नहीं डलवाया। लेकिन कुछ समय बाद उन्हे महसूस हो गया कि स्कूल में पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है और बच्चे को कोचिंग में डलवाना ही पड़ेगा। आजकल जगह-जगह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कोचिंग सेंटर तो लोगों को तो सपने बेच ही रहे हैं। लेकिन क्या स्कूल सपनों को बेचने में सहयोग कर बहती गंगा में हाथ नहीं धो रहे हैं।

पहले जहां गुरूकुल प्रणाली थी। छात्र अगर गरीब होता था तो गुरू की सेवा कर शिक्षा प्राप्त कर सकता था। गुरू का भी जोर छात्रों को अच्छी शिक्षा देने में होती थी। लेकिन आजकल तो व्यवस्था एकदम उलट ही गई है।
अब चिकित्सा सेवा को लेते हैं। पिछले महिने घर के एक सदस्य को कुछ तकलीफ थी। इलाज के लिए निजी अस्पताल गईं। चूंकि उनके पास मेडीक्लेम था इसलिए अस्पताल नें उन्हें भर्ती करने में जरा भी देर नहीं की। पानी का बोतल लगा दिया गया और तरह-तरह के टेस्ट करवाया जाने लगा। कोई बिमारी नहीं होने पर भी तीन दिनों तक अस्पताल में ही रूकने का इंतजाम कर दिया गया।

दूसरा केस मेरे पिताजी का है जो डायबिटिज के मरीज हैं। उन्हें एक सरकारी अस्पताल में ही लेकर गया। उन्हें डॉक्टर ने सात तरह की दवाईयां लिखी हैं जो आजीवन चलेगा और दवाईयों का खर्च दो हजार महिना है। मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता है कि डायबिटिज या ब्लडप्रेशर जैसे रोग जो एक बार होने के बाद मरने तक चलते हैं,के लिए सस्ती दवाईयां नहीं बननी चाहिए। अगर यह रोग गरीब या निम्न मध्यम वर्ग के लोग को हो तो वह इसना खर्चा कैसे उठाएगा। उसे तो रोग को नजरअंदाज करना पड़ेगा। बचपन में अगर पेट में कोई गड़बड़ी होती थी तो दस पैसे के दवा से ठीक हो जाता था लेकिन आजकल को इसके लिए भी दस रूपये का दवा लेना पड़ता है। कंपनियों का तो मुनाफा ही कर्तव्य है लेकिन डॉक्टर सेवा के अपने कर्तव्य को क्यों भूल जाते हैं।

Sunday, August 15, 2010

आओ खेलें दुल्हा दुल्हन

कहते हैं कि शादी-ब्याह कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल नहीं होता है। लेकिन आज कल तो यह खेल-तमाशा ही बनता जा रहा है। कुछ लोगों ने इसे खेल बना दिया है। इनके लिए शादी और खेल में ज्यादा अंतर नहीं है। खेल की तरह ही इसमें पैसा है, मनोरंजन है और ग्लैमर भी है। इसमें भी मीडिया कवरेज है और खेलों की तरह मैच फिक्सिंग का खतरा भी।

करीब साल भर पहले एक शो आया था राखी का स्वयंवर लेकिन शो के अंत में पता चला कि शादी तो होगी ही नहीं। फिर एक दूसरा शो आया राहुल दुल्हनियां ले जाएगा। इसके प्रचार में कहा गया कि सिर्फ स्वयंवर ही नहीं शादी भी। और शादी हो भी गई। लेकिन कुछ महिने बाद ही खेल में एक नया मोड़ आ गया। राहुल की दुल्हनियां डिम्पी में राहुल पर पिटाई का आरोप लगाया। यह आरोप राहुल के लिए नया नहीं है, राहुल की पहली पत्नी ने भी ऐसा ही आरोप लगाया था और बाद में उसने राहुल को तलाक दे दिया था।

मीडिया को जैसे ही इसकी भनक लगी इस खबर के मैराथन प्रसरण में लग गई। कई विशेषज्ञ बैठ गए और कई एंगल से इस खबर का विश्लेषण होने लगा। आखिर मीडिया इतने अच्छे कैच (खबर) को कैसे छोड़ सकती थी। इसमें मशाला और मनोरंजन तो था ही साथ ही इस कैच को ड्रॉप करने का मतलब था टीआरपी रूपी कप से हाथ धो बैठना।

पहले तो राहुल पर तमाम तरह के आरोप लगे। फिर कुछ लोगों ने डिंपी पर भी आरोप लगाया कि डिंपी कोई दूध की धुली नहीं है। आखिर राहुल का चरित्र तो किसी से छुपा नहीं था। फिर ऐसे में डिंपी ने रिस्क क्यों लिया। क्या इसके पिछे पैसा और शोहरत की भूख थी। हो सकता है कि इस खेल के पीछे भी कोई खेल हो। इसका खुलासा हो सकता है बाद में हो। लेकिन जिस दिन भी यह हुआ मीडिया को फिर एक मशाला मिलेगा। राष्ट्रहित के मुद्दे फिर गौण हो जाएंगे, और दर्शक एक बार फिर ठगे जाएंगे। क्योंकि वर्तमान दौर में ठगे जाना ही दर्शकों की नियती हो गई है।

एक बार डीयू में प्रभाष जोशी जी ने पत्रकारिता के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि आज स्वयंवर दिखा रहे हो कल तुम्हें प्रसव दिखाना होगा। प्रभाष जी टीवी पर आ रहे ऐसे प्रोग्रामों से काफी खिन्न थे। अगर चैनलों का बस चले तो शादी क्या सुहागरात और प्रसव सब कुछ दिखा देंगे। क्योंकि उनका सिद्धांत ही हो गया है कि सब कुछ खेल है और इस खेल में सब कुछ बिकता है।