Thursday, September 23, 2010

अयोध्या मुद्दे पर सबकी नजर

कल अयोध्या मामले पर हाईकोर्ट का फैसला आना है। लेकिन इस संभावित फैसले की आहट पहले से ही सुनाई देने लगी है। हर तरफ इसको लेकर चर्चा की जा रही हैं। कहीं बेबाक तौर पर तो कहीं दबी जुबान में। इस फैसले को लेकर कई सवाल भी हैं जैसे कि जिस समुदाय के विपक्ष में यह फैसला जाएगा वह इसे मानेगा या सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगा? दूसरा कि फैसले के बाद माहौल कैसा रहेगा। इसी बात को लेकर बहुत सारे लोग चिंतित हैं। हालांकि कुछ लोगों ने फैसला टलवाने की कोशिश भी की थी लेकिन अंतत: ऐसा कोई भी प्रयास सफल होता नहीं दिख रहा है।

देश अभी कई समस्याओं से जूझ रहा है। कश्मीर के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं, देश के किसी हिस्से में बाढ़ तो किसी हिस्से में सूखा तबाही मचा रही है। नक्सली हिंसा और महंगाई की समस्या तो पहले से ही मुंह बाए खड़ी है। ऐसे में इस फैसले के बाद अगर माहौल को अगर जरा भी बिगड़ने दिया गया तो देश गलत दिशा में जा सकता है। हालांकि ऐसी कम ही संभावना है लेकिन उपद्रवी और फिरकापरस्त लोग हर जगह होते हैं और ये हमेशा मौके की ताक में रहते हैं। इसका एक उदाहरण इन दिनों एसएमएस के जरीए धार्मिक भावना भड़काने की की जा रही कोशिश है। हालांकि एक सुखद बात ये भी है कि एक तबका ऐसा भी है जो संदेश माध्यमों के जरीए भाईचारा बढ़ाने की बात कर रहा है।

अयोध्या विवाद काफी पुराना है। इस विवाद के इतिहास में तो मैं नहीं जाऊंगा लेकिन 89 में मस्जिद का ताला खुलना, कारसेवा का शुरू होना, मुलायम सरकार के दौरान कारसेवकों पर गोलीबारी, आडवाणी की रथ यात्रा और बाबरी मस्जिद का विध्वंस आदि की कुछ धुंधली तस्वीरें मेंरे जेहन में हैं। हजारो ऐसे बेगुनाह जिनके जीवन पर मंदिर-मस्जिद के बनने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था इस विवाद के कारण हुए दंगों की भेंट चढ़ गए। हर महिने लाखों-करोड़ रूपये सिर्फ विवादित स्थल की सुरक्षा में ही खर्च हो रहे हैं।

इस विवाद से कुछ हासिल तो नहीं हुआ हैं, उल्टे छीना ही बहुत कुछ है। जिन लोगों ने दंगे-फसादों के बीच डरे-डरे दिन बिताए आज भी इसके संभावित आहट से आज भी सहम जाते हैं। उस वक्त एक पटाखे के फूटना भी किसी बम विस्फोट सा लगता था। कहीं कोई हल्की शोर से भी लोग चौकन्ने हो जाते थे। आज भी मुझे याद है जब मैं स्कूल में था तभी कहीं किसी गाड़ी के टायर फटने से भगदड़ मच गया और हमें पीछे के रास्ते से सुरक्षित निकाला गया था। मेरा बचपन एक मुस्लिम की गोद में खेलते हुए बीता। वो बंगाली थे और उनका व्यापार पास ही के बाजार में था। लेकिन दंगे की डर से वो एक बार जो लौटे फिर वापस ही नहीं आए। बाद में उन्होंने अपने करींदों के माध्यम से अपना व्यापार समेट लिया।

अयोध्या पर फैसले और उसके बाद के माहौल को लेकर भले ही शंका-आशंका हो लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि माहौल बिगड़ेगा नहीं। तब से अब तक सरयू में काफी पानी बह चुका है। तब के बच्चे जिन्होंने डरे-सहमें इस फसाद को देखा अब बड़े हो गए हैं ये काफी समझदार भी हैं। तब के उन्मादी अब अधेड़ हो चुके हैं और उनका उन्माद भी अब शांत पड़ चुका है। सामाजिक ताने-बाने में भी काफी बदलाव आया है। लोग खुद ही इतनी समस्याओं से घिरे हैं और महंगाई और भ्रष्टाचार जिससे वो रोज दो-चार होते हैं उसके विरोध में भी सड़कों पर नहीं उतरते हैं। लोग तो बस शांति चाहते हैं।

अयोध्या विवाद के समाधान को लेकर भले ही लोगों के मन में कोई संदेह हो लेकिन महाराजगंज के धुसवां कला गांव के निवासियों नें लोगों के सामने एक अनूठी ही मिसाल पेश की है। इस गांव में स्थित मलंग बाबा के दरगाह की चाहारदीवारी के निर्णाण के लिए जब नींव खोदी जा रही थी तो नीचे से शिवलिंग निकला। इसकी खबर पाते ही हिंदू वाहिनी के सदस्य वहां पहुंचने लगे। लेकिन गांव के हिंदुओं ने उन्हे साफ कह दिया कि नेता लोग चले जाएं, गांव के लोग खुद इस मामले में फैसला लेंगे। बाद में दोनों समुदायों के लोगों ने मिल बैठ कर फैसला लिया कि दरगाह के आधे हिस्से का जीर्णोद्धार होगा जबकि आधे हिस्से में शिव मंदिर होगा।

अभी तो हाईकोर्ट का फैसला आना है जैसाकि उम्मीद है कि आगे सुप्रीम कोर्ट में मामला जा सकता है। इस मामले ने अभी तक लोगों से जितना छीना है वो तो नहीं लौटाया जा सकता लेकिन अयोध्या धार्मिक एकता की मिसाल बन सकता है। बशर्ते अयोध्या के लोगों को ही मिल बैठकर इस विवाद को सुलझाने दें।

Saturday, September 18, 2010

बात बेईमानी की

पिछले दिनों किसी नें एक चुटकुला सुनाया जिसमें एक बच्चा अपने बाप से पूछता है कि पापा-पापा ये सरकार क्या होती है? बाप उससे पूछता है कि ये बताओ कि घर में कमाता कौन है? बच्चा कहता है कि आप कमाते हैं। तो बाप कहता है कि तो मैं घर की अर्थव्यवस्था हूं। फिर बाप पूछता है कि ये बताओ कि खर्च कौन करता है तो बच्चा कहता कि खर्च तो मां करती है तब बाप कहता है कि तुम्हारी मां इस घर की सरकार है। फिर बच्चा पूछता है कि घर में जो बाई काम करती है वो कौन है? तब बाप बताता है कि वो नौकरशाही या प्रशासन है। बच्चा आगे पूछता है कि तब मैं कौन हूं तो बाप उसे बताता है कि तुम इस देश की आम जनता हो। बच्चा फिर सवाल करता है कि पालने में जो छोटा भाई है वो कौन है तो बाप कहता है कि वो इस देश की भविष्य है।


रात में सभी सो जाते हैं। पालने में जो छोटा बच्चा था वो रोने लगता है उसके रोने से वो बच्चा जाग जाता है। बच्चा देखता है कि उसका छोटा भाई टट्टियों में पड़ा है और उसकी मां खर्राटे मार कर सो रही है। वह उसे जगाने की कोशीश करता है लेकिन उसकी मां नहीं उठती है। फिर वो अपने बाप को खोजता है वह घर की नौकरानी के साथ सोया पड़ा मिलता है। बच्चा उसे भी पुकारता है लेकिन कोई नहीं उठता। सुबह में बच्चा अपने बाप को कहता है कि आज मैं जान गया कि सरकार क्या होती है। बाप पूछता है कि सरकार के बारे में क्या जानते हो? बच्चा कहता कि देश का भविष्य टट्टियों में पड़ा है, नौकशाही अर्थव्यवस्था का शोषण कर रही है, आम जनता मारी-मारी फिर रही है और देश की सरकार है जो खर्राटे मार-मार कर सो रही है।

इस चुटकुले ने मुझे सोंचने पर मजबूर कर दिया। वस्तुत: इस चुटकुले के माध्यम से आज की व्यवस्था पर हंसी-हंसी पर करारा व्यंग किया गया है। इस चुटकुले में गंभीर निहितार्थ छुपे हुए हैं। यह न केवल सरकार बल्कि व्यक्ति और समाज पर गंभीर चोट करता है।

वस्तुत: हमें पहले अपने अंदर झांकने की जरूरत है। सरकार चलाने वाले नेता या नौकरशाह कोई आसमान से नहीं टपकते वह भी हमारे बीच से ही निकलते हैं। यहां सोने वाले , शोषण करने वाले और मारे-मारे फिरने वाले भी हम ही हैं और इस व्यव्स्था को सुधारने वाले भी हम ही हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि जनता को उसके चरित्र के अनुसार ही सरकार मिलती है। अगर हम पहले अपने आप को सुधार लें तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा।

कुछ दिनों पहले भारत के पूर्व सतर्कता आयुक्त प्रत्युष सिन्हा ने कहा था कि एक तिहाई भारतीय बेईमान हैं। यह आंकड़ा अधिक भी हो सकता है। आखिर क्या कारण है कि जब लोग नौकरी के लिए प्रयास करते हैं तो ईमानदारी की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन नौकरी शुरू होते ही सारी की सारी ईमानदारी धरी की धरी रह जाती है। अगर किसी को सरकारी नौकरी मिल जाती है तो वह हर समय अपने को बेचने के लिए तैयार बैठा रहता है। कभी अपनी ईमानदारी को निलाम करता है तो कभी विवाह के मंडी में अपनी बोली लगवाता है। व्यवस्था को तो सभी कोसते हैं लेकिन उसे सुधारने की बात कोई नहीं करता।

पिछले दिनों एक रिश्तेदार से मेरी बात हो रही थी। उनके घर के सदस्य जो सप्लाई विभाग में हैं, की पोस्टिंग उसी शहर में हो गई। मेरे रिश्तेदार ने बताया कि अब उनके घर के राशन का खर्च बच जाता है। मैंने उनसे कहा कि इस तरह की राशन खाना सही नहीं है तो मुझे जवाब मिला कि घर के बड़े सदस्य हैं उन्हें मना नहीं कर सकते। ऐसी कई छोटी-छोटी चीजें हैं जिसे करते समय हम जरा भी नहीं सोंचते कि हम क्या गलत कर रहे हैं। हम दूसरे से तो ईमानदारी और नैतिकता की बातें करते हैं लेकिन जब भी मौका मिले उसे तोड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। जब कुछ करोड़ रूपये का बोफोर्स घोटाला हुआ था तो कितना बवाल मचा था लेकिन आज हजारों करोड़ रूपये का घोटाला हो जाता है लेकिन सब कुछ सामान्य सा लगता है। जाहिर है कि बेईमानी को लेकर समाज में स्वीकार्यता बढ़ी है।

एनसीईआरटी के किताबों के कवर पर गांधीजी का जंतर पढ़ने को मिलता है जिसमें बेईमानी से निपटने का उपाय बताया गया है। लेकिन गांधीजी के जंतर को भले ही हम रट्टू तोते की तरह याद कर लें लेकिन इसका अर्थ न हो हम समझना चाहते हैं और न ही सरकार चाहती है कि जनता इसका मतलब समझे।

Friday, September 10, 2010

सफेदपोशों का खेल

भद्रजनों के खेल कहे जाने वाले क्रिकेट को क्या हो गया है। लगता है सफेद कपड़ों में खेले जाने वाला खेल (अब सफेद कपड़े में केवल टेस्ट मैंच ही खेला जा रहा है) सफेदपोशों का खेल बनता जा रहा है। पिछले दिनों पाकिस्तान के सात खिलाड़ियों का नाम मैच फिक्सिंग में सामने आया। यह पहला मौका नहीं है जब मैच फिक्सिंग का मामला सामने आया है, लेकिन इस बार स्पॉट फिक्सिंग के रूप में एक नया मामला सामने आया है। पहले खिलाड़ी पैसे लेकर खराब खेलते थे लेकिन अब यह भी तय होने लगा कि कौन सा बॉलर पहला ओवर डालेगा और ओवर की कौन सी डिलीवरी नोबॉल होगी।

लेकिन पाकिस्तान की प्रतिक्रिया देखिए उसे तो हर गलत काम के पिछे भारत की साजिश ही नजर आती है। चाहे लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेटरों पर हमला हो या पाकिस्तान में बाढ़ हो या फिर मैच फिक्सिंग में उनके खिलाड़ियों का फंसना। जब आईसीसी ने पाकिस्तान के तीन खिलाड़ियों को निलंबित किया गया तो उसपर भी पाकिस्तान ने कहा कि भारत पाकिस्तान में क्रिकेट को तबाह करना चाहता है। लंदन में पाकिस्तानी उच्चायोग के एक अधिकारी ने तो आईसीसी अध्यक्ष शरद पवार पर मुकदमा करने की भी धमकी दे डाली।

इससे पहले भी पाकिस्तान के कुछ खिलाड़ी मैच फिक्सिंग की फांस में फंस चुके हैं। पाकिस्तान अगर समय रहते इसके लिए कोई ठोस कदम उठाता तो शायद क्रिकेट कलंकित नहीं होता। बात यहां सिर्फ किसी खास देश के खिलाड़ियों के फंसने की नहीं है बल्कि पूरे खेल के दागदार होने की है। पाकिस्तान के हालात अच्छे नहीं हैं। पाकिस्तान जाकर कोई देश खेलना नहीं चाहता। श्रीलंका के शेरों ने कुछ हिम्मत दिखाई भी थी तो उनका स्वागत गोलियों से हुआ। इसके बाद वर्ल्ड कप का आयोजन भी पाकिस्तान से छिन गया। इस पर भी उसने भारत पर ही आरोप लगाया था।

पाकिस्तान की क्रिकेट भी राजनीति का शिकार हो गई है। किसी भी खिलाड़ी का स्थान सुरक्षित नहीं है। कप्तान दर कप्तान बदले जाते हैं। वरिष्ठ खिलाड़ी भी बड़े बेआबरू होकर बाहर टीम से बाहर निकाले जाते हैं। ऐसे में खिलाड़ियों को जब टीम में मौका मिलता है तो दौलत और शोहरत के भूखे खिलाड़ियों को फिसलने में देर नहीं लगती। ऐसे में पाकिस्तान अपने यहां के हालात सुधारने के बारे में सोंचे। हर बात में भारतीय साजिश की शुतुरमुर्गी सोंच से ऊपर उठे। तभी देश का भला होगा। अभी तो तीन क्रिकेटरों पर प्रतिबंध लगा है, ख़ुदा ना करे कि कहीं पूरी टीम पर ही प्रतिबंध न लग जाए। एक तो पाकिस्तान भ्रष्टाचार के आरोपों से परेशान रहा है। पाकिस्तान में आतंकवाद और बाढ़ की आपदा बड़ी तबाही मचा रही है। ऐसे में सरकार की उदासीनता और आपदा के समय राष्ट्रपति के यूरोप भ्रमण के कारण देश की छवि पहले से ही गिरी है दूसरे अगर और अगर ऐसा हुआ तो उस देश की कितनी बदनामी होगी और इस दाग को धोना बड़ा मुश्किल होगा।

दूसरे देशों के खिलाड़ियों का नाम जब मैच फिक्सिंग में आया तो उन पर वहां के बोर्डों ने कार्यवाही की लेकिन पाकिस्तान को तो पहले सबूत चाहिए और पाकिस्तान की तो यह नियती हो गई है कि कितने भी सबूत दे दो उससे उसका पेट नहीं भरता। पिछले वर्ड कप में ही तो आयरलैंड के खिलाफ मैच में पाकिस्तान की शर्मनाक हार के बाद बवाल मचा था कहा गया कि मैच फिक्स थी। मैच के बाद टीम के कोच बॉब वूल्मर संदिग्ध परिस्थितियों में अपने होटल के कमरे में मृत पाए गए उस घटना की न तो गुत्थी सुलझी और न तो पाकिस्तान ने उससे कोई सबक लिया। शायद पाकिस्तान की सोंच ही हो गई है कि बदनाम हुए तो क्या नाम तो हुआ।

Saturday, September 4, 2010

पैसा है प्यारा-प्यारा, काम-काज नहीं गंवारा

कुछ दिनों पहले सांसदों के वेतन बढ़ाने को लेकर बड़ा हंगामा मचा। कुछ सांसदों ने कहा कि इस समय सांसदों के वेतन बढ़ाने से महंगाई की मारी जनता के बीच गलत संदेश जाएगा। वहीं लालू-मुलायम जैसे सांसदों ने वेतन बढ़वाने के लिए मोर्चा खोल दिया और यहां तक कह दिया कि सांसदों के वेतन बढ़ाने को लेकर वही लोग विरोध कर रहे हैं जिनके विदेशी बैंकों में पैसे जमा हैं और अंतत: उनका वेतन बढ़ ही गया। वैसे अधिकांश सांसद वेतन बढ़ाने के पक्ष में ही थे।

वेतन बढ़वाने की मांग के पीछे उनका तर्क था कि सचिवों की तनख्वाह उनसे अधिक है इसलिए उनसे पद में ऊपर होने के कारण उनका वेतन सचिवों से एक रू. ही सही अधिक तो होना ही चाहिए। हालांकि सांसदों के वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर हर जगह इस बात की आलोचना हुई और लोगों में उनके प्रति गलत संदेश ही गया।

सांसदों का वेतन क्यों नहीं बढ़ना चाहिए और इसका विरोध इतना अधिक क्यों है? सांसदों के वेतन बढ़ाने के पक्ष में जो बातें हैं वो यह कि सांसदों को दो जगह घर रखना पड़ता है। हालांकि उन्हें दिल्ली में बंगला मिलता है। सरकारी कर्मचारियों की तुलना में उनका ऑफिस 24*7 खुला रहता है। क्षेत्र की जनता का इनके यहां आना-जाना बदस्तुर जारी रहता है। इनके स्वागत सत्कार पर भी खर्च होते हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे खर्च हैं जो पहले के वेतन से बमुश्किल से पूरा हो पाता है। अन्य देशों की तुलना में भी यहां के सांसदों का वेतन बहुत कम है। इसलिए वेतन बढ़ना जायज है।
बाबूओं से अगर तुलना करें तो दोनों ही तो भ्रष्ट हैं। बाबू भी तो वेतन के अलावा अन्य तरीकों से कमाई करते हैं। उनके भी तो कई बेनामी संपत्तियां हैं। बिना कमीशन लिए तो वो भी काम नहीं करते। फिर उनका वेतन इतना अधिक क्यों? बाबू की तुलना में नेताओं से लोग ज्यादा नाराज क्यों हैं?

बाबूओं की तुलना में सांसदों के खिलाफ लोग शायद इसलिए हैं क्योंकि बाबू बनने के लिए कुछ योग्यता की दरकार होती है लेकिन नेता बनने के लिए केवल धनबल,बाहुबल और चाटुकारिता आदि गुणों की ही आवश्यता होती है। बाबू तो जनता से कमीशन लेते है लेकिन नेता तो इन बाबूओं से भी कमीशन ले लेते हैं और इन्हें भ्रष्ट बनाने वाले शायद नेता ही हैं। बाबू तो कुछ काम भी करते हैं लेकिन नेताओं के लिए काम करने का कोई बंधन नहीं होता है न ही उनपर किसी तरह की जिम्मेदारी होती है। संसद में चाहे हंगामे में कितना ही वक्त जाया कर लो और संसद की कार्यवाही में चाहे जितना ही पैसा जाया होता हो तो होने दो। हमारा क्या है हमें तो उसमें हिस्सा लेने पर उसका भुगतान तो मिल ही जाएगा। एक और बात यह है कि बाबू तो अपने हाथों अपना वेतन नहीं बढ़ा पाते हैं वहीं सांसद अपना वेतन अपनी मनमर्जी बढ़ाते रहते हैं।

सांसदों को वेतन के अलावा ढेरों सुविधाएं हैं जो उन्हें मुफ्त में मिलती हैं। जैसे बिजली, पानी, फोन आदि की असीमित छूट। मुफ्त में इन सुविधाओं को मिलने के कारण सांसदों के लिए इनका कोई मोल नहीं होता। एक तरफ सरकार लोगों को बिजली और पानी की बर्बादी रोकने और उन्हें बचाने की नसीहत सिर्फ जनता के लिए ही होती है सांसदों और विधायकों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। आम जनता के लिए सरकार इन मूलभूत सुविधाओं की कीमत बढ़ाती जा रही है और नेता इसे बेकार में बहाए जा रहे हैं। एक तरफ बिजली बचाने के लिए सरकार अर्थ ऑवर मनाने का रस्म अदायगी करती है वहीं नेताओं के बंगले रोशनी में नहाए रहते हैं। यहां अगर नेता लोग खुद पहल करके इन्हें बचाने का प्रयास करें तो जनता भी इसका अनुकरण करेगी और देश के लिए यह एक भला काम होगा।

बेशक सांसदों के वेतन बढ़ा दिए जाएं लेकिन इनकों मिलने वाली मुफ्त की सुविधाओं को बंद कर दिए जाएं जिससे इनके मोल का इन्हे पता चले। साथ ही इनके कामकाज के लिए कुछ उत्तरदायित्व भी तय हों। वेतन बढ़ाने के लिए एक आयोग बने। सांसदों को मिलने वाली सांसद निधि से होने वाले खर्च पर भी कड़ी निगरानी रखी जाए और संसद की कार्यवाही अगर सांसदों के हंगामे के भेंट चढ़ जाती है तो उस दिन का वेतन उनसे काट लिया जाए। साथ ही सांसदों को संसद की कार्यवाही में न्यूनतम उपस्थिति की एक सीमा भी तय कर देना चाहिए। मेरे ख्याल से वेतन बढ़ने से जनता को ज्यादा आपत्ति नहीं होगी अगर सांसद अपना आचरण सुधारें, हंगामें की जगह स्वस्थ बहस करें और जनता की परेशानियों के बारे में भी सोंचें। सांसदों के पास एक अच्छा मौका था कि वह महंगाई की मारी आम जनता के सामने एक मिसाल पेश करती जिसे उन्होंने गंवा दिया।

Wednesday, September 1, 2010

सड़ाओ नहीं, सरकार

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने सरकार को पहले कहा था कि गोदामों में सड़ रहे अनाज को गरीबों में बांट दिया जाए। लेकिन सरकार ने निष्क्रियता और निर्लज्जता की सारी हदें पार कर दीं। कृषि मंत्री ने कहा था कि कोर्ट का कथन आदेश नहीं सुझाव है और भले ही अनाज सड़ जाए लेकिन इसे गरीबों को बांटना संभव नहीं है। अंत में कोर्ट को कहना पड़ा कि सरकार को आदेश दिया गय था सुझाव नहीं।
सवाल यह उठता है कि क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के सुझाव और आदेश में अंतर भी नहीं समझ सकती है। अगर सामान्य सी बातों की समझ सरकार को नहीं है तो जटिल मुद्दों का क्या होगा? क्या सरकार के सॉलीसिटर जनरल, कानून मंत्री सब नकारा हो गए है। क्या उनसे इस्तीफा नहीं ले लेना चाहिए।
पहले तो कृषि मंत्री कहते रहे कि गरीबों को सड़ रहे अनाज मुफ्त बांटना संभव नहीं है। अब जब कोर्ट का आदेश मिल गया है तो कह रहे हैं कि कोर्ट का आदेश है तो इसका पालन किया जाएगा। लेकिन जब पहले ही मंत्री जी ने हार मान ली थी तो अब कैसे आदेश का पालन कर पाएंगे। वैसे भी पवार साहब काम से ज्यादा भविष्यवाणियां करने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने जब-जब कीमतें बढ़ने की भविष्यवाणियां की सही साबित हुईं। इसलिए गरीबों को मुफ्त में अनाज बंट पाएगा ऐसा लगता नहीं है।
एक तरफ तो सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लाती है ताकि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को निश्चित मात्रा में अनाज कम कीमत पर उपलब्ध कराया जा सके। इसे पारित करवाने में भी हजारो झमेले होते हैं। लेकिन सड़ रहे अनाज को अगर सरकार चाहे तो बांटने के लिए कोई विधेयक लाने की जरूरत तो नहीं होगी न ही कोई विवाद होगा। यह तो एकदम सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है। अगर सरकार अनाज को सुरक्षित नहीं रख सकती है तो खरीदती ही क्यों है। सरकार उतना ही अनाज खरीदे जितनी जगह उसके गोदामों में हों। एक तरफ अनाजों के दाम बढ़ रहे हैं और बढ़ती जनसंख्या के कारण दूसरी हरित क्रांति की बात की जाने लगी है वहीं दूसरी और सरकार अनाजों को बर्बाद कर गंभीर अपराध कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि, "जिस देश में हजारों लोग भूख से मर रहे हों वहां अन्न का एक दाने की बर्बादी भी अपराध है। यहां 6000 टन अनाज बर्बाद हो चुका है।" लेकिन सरकार को क्या फर्क पड़ता है। जनता के गाढ़े मेहनत के उत्पाद चाहे वह अनाज हो या पैसा बर्बाद करना तो अब उसकी आदत सी हो गई है। चाहे अनाज को सड़ाने के रूप में हो या फिर विभिन्न योजनाओं और आयोजनों में बंदरबांट के रूप में हो।
अगर इन अनाजों का सदुपयोग भी हो जाए तो न तो बढ़ती जनसंख्या का असर होगा और न अनाजों के दाम इस तरह आसमान छूएंगे। जितना अनाज हम पैदा करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा खेतों से गोदामों तक जाने में खराब हो जाता है और फिर गोदामों में भी सही रखरखाव के अभाव में कुछ हिस्सा नष्ट हो जाता है। आजकल आपदा या अभाव संसाधनों के कुप्रबंधन के कारण ज्यादा होने लगे हैं। अगर संसाधनों का सही इस्तेमाल किया जाए तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।