Sunday, July 18, 2010

मीडिया नहीं लोकतंत्र पर हमला

यह पोस्ट पब्लिश करने में थोड़ा टाइम लग गया। लेकिन मैं अपनी बात कहे बिना रह न सका। पिछले दिनों आजतक के ऑफिस पर संघ के कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया। संघ के कार्यकर्ता आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइंस टुडे पर दिखाए गए उग्र हिंदुवाद के स्टिंग ऑपरेशन से भड़के हुए थे। इस हमले को केवल एक मीडिया संस्थान पर हमले के रूप में न लेकर लोकतंत्र पर हमले के रूप में देखा जाना चाहिए। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है। हमे संविधान ने अभिव्यक्ति की आजादी दी है। इस तरह यह हमला लोकतंत्र और संविधान पर आघात करता है और भारत के नागरिक होने के नाते हमारा यह मूल कर्तव्य है कि हम इस तरीके के किसी भी हमले का पूरजोर विरोध करें।
ऐसा पहली बार नहीं इससे पहले भी इस तरीके हमले मीडिया पर होते रहे हैं। कुछ साल पहले मुंबई में स्टार का ऑफिस उपद्रवियों का निशाना बना था। लेकिन देश की राजधानी में इस तरह की पहली घटना है। आजकल देश में विरोध के नाम पर विध्वंश की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। किसी का कहा अगर रास न आए तो उसका मुंह बंद कराने की कोशिश की जाती है।
संघ ने अपने बयान में कहा कि उनका केवल शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन का कार्यक्रम था। संघ ने इस हमले को डेमोक्रेटिक बताते हुए कहा कि जिस तरह मीडिया को अपनी बात कहने की आजादी है उसी तरह उन्हें भी विरोध करने का अधिकार है। सही है आप विरोध करिए लेकिन विरोध का यह तरीका किस देश की डेमोक्रेसी में आता है। विरोध के नाम पर तोड़फोड़ का अधिकार आपको किसने दे दिया। अगर शांति पूर्ण प्रदर्शन का ही प्रोग्राम था तो फिर यह प्रदर्शन उग्र कैसे हो गया। इसकी जिम्मेवारी तो संघ की ही बनती है और इसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए।
संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा ने भी संघ का बचाव ही किया। आजतक पर भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद का सारा जोर बहस को मुख्य मुद्दे से भटकाकर स्टिंग ऑपरेशन की आलोचना करना था। उनका कहना था कि टीआरपी के लिए मीडिया इस तरह की चीजें दिखाती हैं। और जब आजतक पर हेडलाइंस टुडे के राहुल कंवल आए तो रविशंकर प्रसाद शो छोड़कर चले गए। इसमे तो मूल सवाल यही है कि विरोध का यह तरीका कैसे सही है? स्टिंग ऑपरेशन की भावना या सच्चाई की बात तो अलग मुद्दा है और इसका बात करना तो मुद्दे से भटकना है। अगर स्टिंग गलत भी है तब भी उन्हें हमले का हक नहीं मिलता। उन्हें पहले चैनल पर आके अपनी बात रखनी चाहिए। फिर वह चैनल पर मुकदमा कर सकते थे।
संघ अपने अनुशासन के लिए जाना जाता है। वह हमेशा सिद्धांतों की बात करता है। इमरजेंसी के समय प्रेस पर सेंसर का उसने भी विरोध किया था। मैंने सुना है कि देश में कही अगर कोई आपदा आती है तो संघ के लोग पहले पहुंचते है और राहत कार्य में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। इसी तरह अपने को पार्टी विद डिफरेंश कहने वाली भाजपा के नेता रविशंकर प्रसाद को विभिन्न बहसों में भाग लेते और दूसरों की धज्जियां उड़ाते देखा है। इनके प्रति जो भी इज्जत मन में थी वह मीडिया पर हमले पर उनके स्टैंड से कम गया।
दूसरा मुझे इस बात का भी दुख है कि इस खबर को प्रिंट मीडिया ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। जैसे यह हमला केवल इलेक्टॉनिक मीडिया पर था। दूसरे के घर पर हमला होता है तो होने दो अपना घर तो अभी सुरक्षित है। कुछ इसी तरह का रूख अखबारों ने रखा। दूसरे दिन हिंदुस्तान में यह खबर लीड थी कि भारत में ढाई करोड़ की मर्सीडिज बिकेगी। लेकिन हमले वाली खबर सिंगल कॉलम में बीच में कहीं छुपा था और पूरी खबर पांचवें पन्ने पर नीचे लगाया गया था। इस पर न तो कोई संपादकीय और न तो कोई लेख छापा गया। यही हाल हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया का था। यह बात समझ से परे है कि अगर ढाई करोड़ की कार अगर भारत में बिकती है और दस लोगों ने इसके लिए बुकिंग करवा भी ली है तो इससे कितने लोगों को फर्क पड़ता है। जिन लोगों की खबरें अखबार ने छापा है वो लोगो तो उनकी अखबार पढ़ते भी नहीं होंगे। लेकिन मीडिया पर हमला वाली खबर से भले अभी लगे न लगे लेकिन इससे पूरा देश प्रभावित होगा। मीडिया के अभियान की वजह से ही बहुत सारे घोटाले सामने आए हैं और बहुत सारे केस में दोषी मीडिया की सक्रियता के कारण ही दोषी को सजा मिल पाई है। अगर मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिश हुई तो देश में भ्रष्टाचार और बढ़ेगा। फिर बात-बात में कानून हाथ में लेने की प्रवृति भी खतरनाक है। इससे लोकतंत्र पर लाठी धारी भीड़ तंत्र का अधिकार हो जाएगा। जो बात-बात में हमें सिखाएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं।

Monday, July 12, 2010

फुटबॉल के बहाने

फुटबॉल के महाकुंभ का समापन हो गया। यह वर्ल्ड कप
शकीरा के वाका-वाका गीत और जर्मनी के ऑक्टोपस पॉल
के लिए यादगार रहेगा। इस विश्व कप में स्पेन के रूप में एक विश्व को एक नया चैंपियन मिला।
विश्व कप शुरू होने के पहले जो खिलाड़ी हीरो थे,
वो सब जीरो साबित हुए। मेसी, काका, रोनाल्डो, रूनी जैसे फुटबॉल के सुपर स्टार का फ्लॉप हो गए। जबकि इन सबों की लोकप्रियता को पीछे छोड़ते हुए ऑक्टोपस
पॉल बाबा हीरो बन गए।
पॉल बाबा अब किसी परिचय के मोहताज नहीं रह

गए हैं। अखबारों से लेकर टीवी चैनल सभी उन्हीं के
रंग में रंगे हैं। उनकी भविष्यवाणियां सौ फीसदी
सही साबित हुई हैं। एक तरफ उनके
लाखों दीवाने हैं तो दूसरी ओर जर्मनी
वाले उनके खून के प्यासे बन गए हैं।
सच्चाई आखिर जो भी हो इतना तो तय
हो ही गया कि जो पश्चिमी देश हमें सपेरों
का देश कहकर हमारी खिल्ली उड़ाते थे वो
भी हमसे कम नहीं हैं।
खेल के आयोजन के समय इस बात का दुख
हमें सालता रहा कि हमारा देश इस महाकुंभ
में डुबकी क्यों नहीं लगा पाया। हर बड़े खेल के आयोजन में जब हमारा देश पिछड़ जाता है तो हम थोड़ी देर दुख प्रकट करते हैं। हम कहते हैं कि हमारे देश की एक अरब आबादी में से इतने खिलाड़ी भी नहीं निकल पाए कि देश को क्वालिफाई करवा सकें या ओलंपिक में मेडल दिलवा सकें। फिर हम इसके लिए क्रिकेट को कोस लेते हैं। जैसे क्रिकेट ही इस समस्या का जड़ हो और क्रिकेट इन खेलों का शत्रु हो। इसके बाद हम चार साल तक चुप बैठ जाते हैं।
किसी भी खेल में पिछड़ने का कारण किसी दूसरे खेल को बताना सही नहीं है। ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड की आबादी हमारे देश से काफी कम है। ये दोनो देश क्रिकेट के पुराने खिलाड़ी हैं। यहां भी क्रिकेट की लोकप्रियता किसी से कम नहीं है। बावजूद इसके कि दोनो देश फीफा वर्ल्ड कप में भी भाग लेते हैं। किसी भी खेल में किसी को इंट्रेस्ट नहीं है तो उसे आप जबरदस्ती नहीं उस खेल को देखने को कह सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे जर्मनी, इटली या फ्रांस वाले को क्रिकेट के बारे में शायद ही कुछ पता हो और आप उन्हें क्रिकेट देखने को नहीं कह सकते। भारत में प. बंगाल, गोवा और केरल में फुटबॉल लोकप्रिय है और इनकी आबादी भी फुटबॉल खेलने वाले कई देशों से अधिक होगी फिर क्यों नहीं ये राज्य मिलकर एक ऐसी टीम खड़ी कर पाते हैं जो वर्ल्ड कप में क्वालिफाई कर सके। अब तो इसके लिए विदेशी प्रशिक्षक भी रखे जा रहे हैं। भारत में फुटबॉल तभी ज्यादा लोकप्रिय हो सकेगा जब हम बड़े इवेंट में भाग ले सकें।
अगर ओलंपिक की बात करें तो हमें हॉकी से ज्यादा उम्मीदें रहती हैं। लेकिन इन उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। अगर हम टीम इवेंट की जगह व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा पर ज्यादा ध्यान दें तो हमें ज्यादा मेडल मिल सकता है क्योंकि टीम इवेंट में एक मेडल के पीछे ग्यारह खिलाड़ी होते हैं जबकि अन्य इवेंट जैसे टेनिस, बैडमिंटन, तीरंदाजी, दौड़ आदि में एक या दो खिलाड़ी मिलकर कई मेडल जीत सकते हैं। जैसे माईकल फेल्प्स को ही लें वह आठ-आठ स्वर्ण अकेले जीत लेते हैं। हमारा पड़ोसी देश चीन भी फुटबॉल में कुछ खास नहीं कर सका है लेकिन ओलंपिक में उसका दबदबा रहता है। इसका कारण है कि वहां सिंगल इवेंट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। हमें भी भीड़ के पीछे नहीं भागना चाहिए। जहां जिस खेल में लोगों की रूचि हो वहां उसे ही बढ़ावा देना चाहिए। अगर हर राज्य अपने यहां एक-एक खेलों को ही बढ़ावा देने में लग जाएं तो हम कई मेडल जीत सकते हैं। जैसे हरियाणा में बॉक्सिंग का क्रेज बढ़ता जा रहा है और इसे वहां बढ़ावा भी दिया जा रहा है। इसी तरह अन्य राज्यों को भी यह मॉडल अपनाना चाहिए।
हमारी यह मानसिकता है कि हम ऐसा सोंचते हैं कि देश में जो भी क्रांतिकारी हो, खिलाड़ी हो या समाज सुधारक हो वह हमारे पड़ोस में हो। हमारे बच्चे तो डॉक्टर, इंजीनियर बनें। हम कोई भी अच्छी पहल खुद से नहीं करना चाहते हैं। अब ऐसे में हम कैसे मेडल जीतने की सोंच सकते हैं।

Sunday, July 11, 2010

राजनीति में यह कैसी नीति


रामविलास पासवान नें राज्यसभा में पहुंचने के साथ ही ऐलान कर दिया कि वह केंद्र में मंत्री नहीं बनेंगे। ऐसा लगा कि जैसे उन्हें कोई मंत्री पद का ऑफर मिल रहा था और वह कोई बड़ा त्याग कर रहे हैं। रामविलास जी के पार्टी का लोकसभा में कोई सदस्य नहीं है। राजद के कुछ सदस्य हैं भी तो कांग्रेस नें उन्हें कोई भाव नहीं दिया तो रामविलास जी को क्यों भाव देने लगे। उन्होंने लगे हाथ यह घोषणा भी कर डाली कि 10 तारीख को महंगाई के खिलाफ बिहार बंद रहेगा।
अब यह बात समझ से परे है कि जब पिछले ही दिनों विपक्षी पार्टियों ने मिलकर भारत बंद करवाया था तब उस समय लालू और पासवान जी ने उस बंद का समर्थन क्यों नहीं किया था? जब मुद्दा एक ही था तो क्या एक दिन भी ये लोग क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर साथ काम नहीं कर सकते? और फिर महंगाई के खिलाफ सिर्फ बिहार बंद ही क्यों?
कुछ महिने पहले ही जब विपक्ष ने महंगाई के खिलाफ कटौती प्रस्ताव लाया था तब भी लालू जी ने इसका समर्थन नहीं किया था और बाद में इसके खिलाफ सड़क पर धरना-प्रदर्शन करके लोगों को परेशान किया था। कल भी इन लोगों ने लोगों को परेशान करने के अलावा कुछ नहीं किया।
कल मैं टेलीफोन से एक सर्वे कर रहा था। मेरी बात छपरा के महबूब हुसैन से हो रही थी, जो पेशे से दर्जी हैं और किसी तरह महिने में तीन हजार रूपये कमा पाते हैं। मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे जैसे कि पिछले एक साल में आपका जीवन स्तर सुधरा है या नहीं? आगे एक साल में आपको अपने जीवन स्तर में सुघार की कोई उम्मीद है या नहीं? इस समय देश की सबसे बड़ी समस्या क्या है? आदि। उनका जवाब था कि देश में महंगाई जिस रफ्तार से बढ़ती जा रही है उससे तीन हजार रूपये में घर चलाना मुश्किल हो गया है। जीवन स्तर पहले से खराब ही हुआ है और यही हालात रहे तो आगे और बदतर ही होगी। महबूब हुसैन इस बात से भी खफा थे कि कल बिहार बंद था और वह बिना कोई काम के खाली बैठे थे। जो भी थोड़ा बहुत वह रोज कमा कर रात की रोटी का इंतजाम करते थे वो शायद कल नहीं हो पाता।
मैंने सर्वे के दौरान जितने भी लोगों से बात की उनमें अधिकांश को महंगाई ही देश की सबसे बड़ी समस्या लगी। लोग महंगाई से परेशान दिखे। लेकिन बिहार के लोगों को बंद से भी परेशानी रही और हो भी क्यों नहीं? एक ही मुद्दे पर अलग-अलग दल अलग-अलग दिन बंद का आयोजन करेंगे तो परेशानी तो होगी ही। इसके अलावा बंद अगर शांतिपूर्ण और स्वेक्षा से हो तो कोई बात नहीं लेकिन आजकल बंदी में अगर कहीं आग न लगाया जाए या तोड़फोड़ नहीं किया जाए तो फिर यह बंद कैसा?
अगर साल में दो-चार बार किसी गंभीर समस्या को लेकर जिस समस्या में जनता पिस कर रह गई है तो बंद होना जरूरी है। यह सरकार को आगाह करने और विरोध करने का माध्यम है। लेकिन इसपर सभी दलों में सहमति होनी चाहिए और जनता का हित सर्वोपरि होना चाहिए। लालू-पासवान जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उसमें उनकी हित ही ज्यादा नजर आता है और इस तरीके की राजनीति से उनका कोई भला नहीं होने वाला उलटे उनका नुकसान ही होगा। क्योंकि जनता सब देख रही है और जनता की नजर में ये लोग एक्सपोज ही हो रहे हैं।
अब राजनीति में एक दूसरे चलन की बात कर लेते हैं। पिछले दिनों पूर्व सांसद और मंत्री तस्लीमुद्दीन जेडीयू में शामिल हो गए। तस्लीमुद्दीन की छवि विवादास्पद रही है। विवादों के चलते उन्हें एकबार अपने मंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ा था। उस समय जेडीयू ने उनका तगड़ा विरोध किया था। उस समय तस्मीमुद्दीन साहब बिहार के 'जंगलराज' के सिपाही थे और अब वह नीतीश कुमार के मुस्लिम वोट बैंक की सुरक्षा करने उनके सुशासन में शामिल हो गए हैं । नीतीश जी को इन दिनों भाजपा के साथ और नरेंद्र मोदी के बिहार चुनाव में संभावित प्रचार से अपने इस वोट बैंक की ज्यादा फिक्र हो रही है। इसके पहले भी राजद के कुछ लोग जेडीयू में शामिल हो चुके हैं। फिर इससे राजद और जेडीयू में क्या फर्क रह जाता है? जेडीयू तो कोई गंगा नहीं है जिसमें नहा कर लोग पवित्र हो जाएंगे और उनके सारे पाप धुल जाएंगे। राजनीति में बस सिर्फ यही नीति बच गई है कि जिससे अपना उल्लू सीघा हो वही नीति सच बाकी सब झूठ।

Tuesday, July 6, 2010

बंद पर बहस

महंगाई को लेकर विपक्ष का भारत बंद सफल रहा। इसपर अब बहस गरमाने लगी है कि भारत बंद करना सही था या नहीं? हिन्दुस्तान ने इसी खबर को अपनी आज की लीड बनाते हुए शीर्षक दिया है क्या मिला। पत्र ने बंद से होने वाले नुक्सान का आंकड़ा दिया है। पत्र ने अपने 'दो टूक' में लिखा है कि बंद सफल रहा। लेकिन यह बंद किसके खिलाफ था? जाहिर है केंद्र सरकार। लेकिन इसका खामियाजा किसको भुगतना पड़ा? आम आदमी को। बड़ी अजीब बात है कि मुद्दा आम आदमी का और निशाने पर भी वही। क्या विरोध का कोई रास्ता नहीं रह गया है? आगे पत्र विरोध का तरीका बताता है कि आपका कोई नेता अनशन पर बैठ जाता। अधिक से अधिक क्या होता? भूख से मर जाता। लेकिन तब ऐसा तूफान उठ खड़ा होता जिससे सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ती।

हिंदुस्तान कांग्रेसी विचारधारा वाला अखबार है, इसलिए उससे सरकार के मुखर विरोध की आशा नहीं कर सकते हैं। लेकिन गंभीर मुद्दे पर इस प्रकार की निर्लज भाषा की भी उम्मीद नहीं कर सकते हैं। किसी भी मामले में किसी भी व्यक्ति को जान देने के लिए कैसे कह सकते हैं? नेता भी तो हमारे ही समाज का हिस्सा हैं। क्या उनकी जान सस्ती है?
यह बात यही है कि बंद से आम जनजीवन प्रभावित होता है। हजारों करोड़ का नुकसान होता है। बंद के दौरान इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि आवश्यक सेवाओं पर कोई बाधा नहीं पड़े। साथ ही बसों, ट्रेनों और सार्वजनिक या किसी की निजी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। बंद स्वेच्छा से हो न कि जबरन। बात-बात पर बंद भी सही नहीं है।
लेकिन जिस तरह से महंगाई बढ़ती जा रही है और सरकार हाथ पर हाथ धरे तमाशा देख रही है। सरकार की ओर से जनता को महज आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिला है। सरकार के मंत्री को आम जनता के हितों से ज्यादा क्रिकेट का हित प्यारा है। ऐसी हालात में विरोध का यह स्वरूप जायज था। सरकार अभी तक इसलिए निश्चिंत बैठी है कि विरोध का कोई हल्का सा भी स्वर उसके बहरे कानों तक नहीं पहुंच पा रही है। सरकार को लगता है कि मनमानी करते जाओ विपक्ष तो बंटा हुआ है ऐसे में सरकार को कौन हिला सकता है। ऐसे समय में इस गंभीर मसले पर विपक्ष की एकजुटता का प्रदर्शन जरूरी था और अगर यह नहीं होता तो यही लोग विपक्ष को ही कोस रहे होते कि जनता महंगाई से मर रही है और विपक्ष सोया हुआ है।
यह कहना कि आम आदमी के हितों के लिए आम आदमी को परेशान किया गया सही नहीं है। आखिर इतने बड़े मसले पर कुछ तो त्याग करना ही होगा। दिहाड़ी पर कमाने वाला मजदूर एक दिन थोड़ा कम कमाया यह तो दिखता है लेकिन वही मजदूर जब दिहाड़ी कमा कर घर लौटता है और महंगाई की वजह से उतने रकम में घर की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाता है, तब इस पर कोई चर्चा नहीं होती है। आंकड़ों में तो दिखा दिया गया कि इतने हजार करोड़ का नुकसान हो गया। इन आंकड़ों में कितनी हकीकत होती है और इस बात पर क्यों नहीं बहस होती है कि सरकारी लापरवाही से बंदरगाहों या गोदामों में अनाज सड़ते रहते हैं और बाजार में इनकी कमी से वस्तुओं की कीमतें आसमान छूती हैं। इससे होने वाले नुकसान के बारे में क्या कहेंगे?
जहां तक बंद से कुछ मिलने ना मिलने का सवाल है, यह जरूरी नहीं है कि किसी भी चीज का परिणाम एक ही दिन में हासिल हो जाए और न ही किसी काम को यह सोंचकर नहीं रोक सकते हैं कि इसमें हम असफल हो जाएंगे। आज विरोध का एक स्वर उभरा है। कल को हो सकता है पूरी जनता ही सड़क पर आ जाए। ऐसे हालात में सरकार को सोंचने पर मजबूर होना पड़ेगा।

Saturday, July 3, 2010

दो नावों की सवारी

शरद पवार आईसीसी के अध्यक्ष बन गए हैं। इस बात से खुशी भी होती है और दुख भी होता है। खुशी इस बात की है कि एक भारतीय इस संस्था का मुखिया है और दुख इस बात का है कि पवार साहब क्रिकेट देखेंगे या कृषि मंत्रालय। वह भारत में रहेंगे या विदेशों में। कृषि मंत्रालय से आम आदमी का हित जुड़ा हुआ रहता है, इसलिए चिंता होना स्वाभाविक है।
आगामी विश्व कप भारतीय उप महाद्वीप में ही होना है। ऐसे में पवार साहब का अध्यक्ष बनना अच्छी खबर है। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अकसर एशियाई खिलाड़ियों के साथ पक्षपात होता है। उन्हें छोटी सी गलती पर भी बड़ी सजा दे दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में एक एशियाई अध्यक्ष के रहने पर बात कुछ और ही होगी।
लेकिन चिंता का विषय यह है कि जिस तरह से मंहगाई बढ़ती जा रही है। खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं। कालाबाजारी बढ़ती जा रही है। गोदामों और बंदरगाहों पर धान और गेहूं सड़ते रहते हैं और सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही है। किसानों की आत्महत्या की घटना बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में आम जनता के सरकार राज में आम जन के हितों की अनदेखी कर खास लोगों के खेल में शामिल होना या किसानों का ख्याल न रखकर क्रिकेट का ख्याल रखना कहां तक जायज है?
पवार साहब पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो एक ही साथ आईसीसी के अध्यक्ष और किसी सरकार में मंत्री भी हैं। आईसीसी एक धनवान संस्था है और इसका प्रसार धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। क्रिकेट मैंचों की भी संख्या भी बढ़ती ही चली जा रही है। ऐसे में अध्यक्ष होने के नाते उन्हें अधिक से अधिक समय विदेशी दौरे में बिताना होगा। आईसीसी का मुख्यालय भी विदेश में ही है। ऐसे में अगर क्रिकेट को ज्यादा समय देते हैं तो कृषि मंत्रालय के साथ अन्याय होगा और अगर मंत्रालय पर ध्यान देते हैं तो क्रिकेट के साथ न्याय नहीं होगा। आईसीसी का प्रशासक होना शुद्ध व्यावसायिक काम है तो कृषि मंत्रालय चलाना कल्याणकारी काम। अब पवार साहब पर ही निर्भर है कि वह पैसे को तरजीह देते हैं या लोगों के कल्याण को। कम से कम पवार साहब दो नावों की सवारी तो ना ही करें। भगवान के लिए वह क्रिकेट या किसान, दोनों में से एक को बक्श दें।

Friday, July 2, 2010

'नाम' की राजनीति

कहते हैं कि नाम में क्या रखा है। लेकिन मायावती जी के लिए नाम में बहुत कुछ रखा है। या यूं कहें कि नाम में ही सब कुछ रखा है। इसलिए मायावती नाम की राजनीति कर रही हैं। सच में मायावती जी नाम की राजनीति से ऊपर उठ ही नहीं सकी हैं। उन्होंने अमेठी को जिला बना दिया लेकिन इसका नाम बदलकर क्षत्रपति साहूजी महाराज नगर कर दिया। यह राहुल बाबा की दलितों की राजनीति को माया के अंदाज में काट है।
राहुल गांधी जिस तरह से दलितों के घर में जाते हैं, उनके साथ खाना खाते हैं और जिस तरह से उनकी यू.पी. में लोकप्रियता बढ़ रही है इससे माया का बौखलाना स्वाभाविक है। मायावती ने पहले भी इसी तरह कई जिलों का नाम बदला था। भले ही इससे इन जिलों का भाग्य नहीं बदला हो। लेकिन माया को तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। वह तो अपने ही धुन में रहती हैं।

किसी जगह का नाम उस जगह की पहचान होती है। उसका वहां के इतिहास से जुड़ाव रहता है। नाम बदलने का मतलब है उस पहचान को नष्ट करना। लोग जितना किसी खास नाम से जुड़ाव महसूस करते हैं उतना नए नाम से नहीं कर पाते हैं।
माया जी को अगर पिछड़े लोगों को ऊपर उठाना है और उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना है तो उन्हें इसके लिए विकास का एक विस्तृत खाका तैयार करना होगा और उसपर अमल करना होगा। लोगों को बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर मुहैया करवाना होगा. तभी जाकर उनका उत्थान होगा। शहरों के नाम बदलने या पार्क बनाने से लोगों का भला नहीं होने वाला है। जितना पैसा पार्क पर खर्च किया जा रहा है उतना अगर स्कूल बनाने पर खर्च किया जाए तो वहां से एक बेहतर पौध तैयार होगी जो सबल, सक्षम और आत्मनिर्भर होगी और जिसे अपने उत्थान के लिए किसी नेता की आवश्यकता नहीं होगी।

राजनीति में ताल ठोंकने के लिए तैयार एक और ठाकरे

ठाकरे परिवार की एक और पीढ़ी ने राजनीति में कदम रख दिया है। बाला साहब के पोते और उद्धव ठाकरे के लड़के आदित्य भी राजनीति के मैदान में कूद पड़े हैं। आदित्य ने मुंबई में पोस्टर लगवाया जिसमें महापुरूषों के नाम के साथ उनकी जाति लिखी हुई थी, जैसे- बाल गंगाधर ब्राह्मण तिलक, ज्योतिबा माली फुले आदि। इस पोस्टर में जाति आधारित जनगणना का विरोध करते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा गया।
भारतीय विद्यार्थी सेना के लेटर हेड पर जारी बयान में आदित्य ने कहा कि शिवसेना हमेशा जाति आधारित राजनीति का विरोध करती रही है। शिवसेना ने मराठी माणुष के हितों के लिए हमेशा संघर्ष किया है। मराठी कोई जात या धर्म नहीं है। महाराष्ट्र में मराठी और हिंदुस्तान में हिंदुओं के हित के लिए शिवसेना लड़ती रही है इसलिए उसे जाति आधारित जनगणना मान्य नहीं है।
आगे आदित्य अपील करते हुए कहते हैं कि भारतीयता ही हमारा धर्म और जाति है। भारतीयता का झंडा हमें बुलंदी से फहराना है।
आदित्य ने एक गंभीर विषय को चुना है। आज के राजनीतिक दौर में जातियता, क्षेत्रियता और वंशवाद हावी हैं। अगर इन तीनों को हटा दिया जाए तो बड़े-बड़े दिग्गजों की राजनीतिक जमीन खिसक जाएगी। कोई ऐसा राज्य नहीं होगा जहां ये तीनों फैक्टर काम नहीं करते हों। लेकिन क्या आदित्य क्षेत्रियता और वंशवाद पर भी कुछ बोलेंगें? क्या वह मराठी और गैर मराठी की राजनीति को रोक पाएंगे? एक तरफ तो वह भारतीयता को अपना धर्म बतलाते हैं लेकिन साथ ही यह भी कहना नहीं भूलते कि शिवसेना ने महाराष्ट्र में मराठियों और हिंदुस्तान में हिंदुओं के लिए संघर्ष करती है। आदित्य मराठी और गैर मराठी या हिंदु-मुस्लिम से ऊपर क्यों नहीं उठ पाए? आदित्य अगर सब को साथ में लेकर चलने की बात करते तो उसका ज्यादा स्वागत होता। आखिर 19 वर्षीय युवा और संत जेवियर कॉलेज के छात्र से तो इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।