Wednesday, August 15, 2012

बड़ी समस्याओं के बीच छोटे मुद्दों की तलाश


देश को आजाद हुए 65 साल हो चुके हैं. इन 65 सालों में देश में काफी तरक्की हुई है, लेकिन देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी जैसी बड़ी समस्याएं भी हैं, जिनसे देश जूझ रहा है. इन मुद्दों पर बड़ी चर्चा होती है, शोर मचता है और आंदोलन भी होता है, लेकिन इन्ही बड़े मुद्दों के बीच कई छोटे-छोटे मुद्दे हैं जो दब जाते हैं. इन पर इतना शोर नहीं मचता न ही हमारा ध्यान जाता है. आजादी के इन सालों में हम बड़ी चीज पाने के लिए कई छोटी चीज खोते जा रहे है. इनमें कुछ ऐसे हैं जो हमारे परिवार समाज और हमारी यादों से जुड़े हैं. इन्हें ही तलाशने का यह एक प्रयास है.
उधार की जिंदगी
बेहतर जिंदगी की चाह में हम न जाने कितने ही तरह के कर्ज से घिरते जा रहे हैं. युवावस्था में करियर बनाने की चाह में एजुकेशन लोन, फिर नौकरी लगी तो तमाम तरह की सुख सविधा जुटाने की चाह में कार लोन, होम लोन और न जाने कौन-कौन से लोन.  अगर लोन ले लिया तो इस बात का भी डर रहता है कि अगर नौकरी छूट गई तो क्या होगा? लोन देते समय तो कंपनियां मीठी बातें करती हैं लेकिन अगर लोन की किश्त न दे पाए तो इनका सुर बदल जाता है. कर्ज न चुका पाने के कारण कई लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं. इस तरह जिंदगी कर्ज के बोझ तले दबती चली जाती है.

छिनता बचपन
बच्चों से उनका बचपन छिनता जा रहा है. पेरेंट्स के अपेक्षाओं और भारी बस्ते के बोझ तले बच्चे कब बड़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता. एक तरफ तो ऐसे बच्चे हैं जिन्हें बाल मजदूरी की आग में झोंक दिया जाता है तो दूसरी तरफ ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें खेलने के लिए संगी-साथी नहीं मिलता. बढ़ते एकल परिवार का चलन और समाज से लोगों का कटना भी इसकी वजह है. बच्चों में अकेलापन बढ़ता जा रहा है.

परिवार और समाज का टूटना
 संयुक्त परिवार की प्रथा समाप्त होती जा रही है. एकल परिवार का चलन बढ़ता जा रहा है. लोग अपने परिवार तक ही सिमट कर रह गए हैं, अपने पड़ोसियों के बारे में उन्हें पता नहीं रहता. पहले मैं अपने गांव में देखता था कि कोई न कोई नाते रिश्तेदार का आना-जाना लगा ही रहता था लेकिन अब किसी फंक्शन में भी कम लोग ही आ पाते हैं.

सम्मान भूलते जा रहे हैं
आज के जेनरेशन में बड़ों के प्रति सम्मान खत्म होता जा रहा है. लोग अपने बुजुर्गों से बेअदबी से बात करते हैं. उनके कुछ कहे का दो टूक जवाब दे दिया जाता है, जबकि पहले जवाब देना तो दूर बड़ों से आंख मिलाना भी मुश्किल था. बड़ों के प्रति अशिष्ट भाषा का प्रयोग भी बढ़ रहा हैय

कहानियां भूल गए
न्यूक्लियर फैमिली के चलन के बीच दादा-दादी की कहानियां कहीं खो गईं. बिजी लाइफ में बच्चों को कहानियां सुनाने वाला कोई नहीं है. पुराने कहानी के पात्रों की जगह पहले चाचा चौधरी, नागराज, ध्रुव, डोगा जैसे कहानी के पात्रों ने लिया और अब उनकी जगह कार्टून के कई कैरेक्टर आ गए हैं. ऐसे में ये कहानियां कहीं विलुप्त न हो जाए.

पारंपरिक खेल भूल गए
वीडियो गेम के प्रति बच्चों में गजब का रुझान है. पुराने खेलों जहां बच्चों में में फिटनेस बनाती थी और उनमें लीडरशिप जैसे गुण विकसित होते थे, जबकि विडियो गेम से बच्चों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है. इन खेलों के न खेलने का कारण यह भी है कि बच्चों को खेलने के लिए साथी नहीं मिलता. लुका-छिपी, पिट्टो/बिट्टो, विष-अमृत जैसे कई खेल हमलोग बचपन में खेला करते थे जो आज के बच्चे नहीं खेलते. इन खेलों का कोई रुल बुक नहीं होता. इन्हे बच्चे एक-दूसरे से ही सीखते हैं. ऐसे में ये ट्रिडशनल गेम कहीं भूला न दिए जाएं.

पलायन आखिर कब तक
पलायन के चलते जहां शहर पर बोझ बढ़ता जा रहा है, वहीं गांव खाली होते जा रहे हैं. बेहतर शिक्षा और भविष्य संवारने की चाह में लोग बड़ी संख्या में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. बचपन में हम जिन दोस्तों के साथ खेलकर बड़े हुए, गांव जाने पर वो नहीं मिलते. गांव बड़ा सूना लगता है.

गायब हो गई चिड़ियों की चहक
बचपन में जिन चिड़ियों को देखते और उनकी चहचहाहट को सुनकर बड़े हुए वो चिड़ियां अब दिखाई नहीं देती. मोबाइल टावरों के रेडिएशन, बढ़ते कंक्रीट के जंगल खाने में कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण चिड़ियों की संख्या घटती जा रही है. जब चिड़ियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच जाती हैं तो सरकार को उनकी याद आती है. जैसा कि दिल्ली में गोरैय्या को राजकीय पक्षी घोषित किया गया है.

नीला आसमां खो गया
यह समस्या मेट्रो सिटीज की है. यहां बढ़ते प्रदूषण के कारण आसमान का रंग नीला नहीं बल्कि पीला दिखाई देता है.  बचपन के दिनों में गर्मी की रातों में तारों को निहारा करते थे, उनके कई नाम होते थे, उनकी कहानियां होती थीं लेकिन सब खो गया.

  

4 comments:

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  2. हमारे जीवन में इन छोटी छोटी खुशियों का खास महत्व है.लेकिन हम हमेशा बड़ा ही सोचते है और छोटी छोटी चीजें हाथ से निकल जाती है.क्या करे बेचारा आदमी आदत से लाचार है. सुधर नहीं सकता!!!!

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  3. Sch mein.. cotiparesani nhi..choti khusiyon ki tilanjali de di hai hum ne...Khushnaseebi se,hum un pidhi ke hain jis ne ye sab mehsus kiya hai...badon ka asshirwaad, pyar, choto ka samman... kam budget m achi aur sukhi zindagi...bachpan ke khel-khiloney..lambi si chatt jahan se chand aur taaron ko dekh pana, patangbaazi...Kitna cha tha sab...wakayie, badlo aur zindagi ki bhag- daur m sab aise pichey chutt gya hai...sab kho rhe hain hum!! Ehsaas to hai ish baat ka, pr bebass hai duniya ki daur mein khud ke pehchaan ki talash mein itney mashgul hai ki kuch kr nhi paa rhe ....

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