Monday, October 6, 2014

हमारी जान इतनी सस्ती है?

विजयदशमी के दिन रावण दहन के दौरान पटना के गांधी मैदान में हुए हादसे की खबर से
 

 
पटना में भगदड़ के बाद बिखरे तबाही के निशान. फोटो साभार गूगल
 
हमारे संपादक गुस्से में थे. उन्होंने मुझसे पूछा, क्या बिहार में लोगों की जान इतनी सस्ती है

? अभी दो साल पहले ही छठ पूजा के दौरान भी भगदड़ में लोग मारे गए थे. मिड डे मिल खाकर भी बच्चे मारे जाते हैं. आयरन और विटामिन की गोलियां खाकर भी लोग मर जाते हैं. इंसैफैलाइटिस से का कहर भी वहां टूटता है. वहां तो कोई व्यवस्था ही नहीं है. फिर उन्होंने पटना के बारे में अपना अनुभव सुनाना शुरू किया. उनका कहना था कि उड़ीसा और छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े प्रदेश भी देखा, लेकिन वहां कम से कम एक व्यवस्था काम करती है. अगर अस्पताल वहां नहीं है तो नहीं है, लेकिन है तो फिर अच्छी हालत में है. बिहार में तो कोई व्यवस्था ही नहीं है. अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं आते. पुलिस वाले सड़कों पर गश्त नहीं करते. पब्लिक ट्रांसपोर्ट है ही नहीं. पटना में सड़क पर जहां देखो ऑटो ही नजर आते हैं.  पटना में बारिश बंद होने के एक सप्ताह बाद भी जलभराव की समस्या से निपटने के लिए सेना बुलानी पड़ती है. मेरठ के लोगों के बीच बिहार के बारे में ये सब सुनकर अच्छा तो नहीं लग रहा था, लेकिन बात भी सही थी. आप कह सकते हैं कि ऐसे हादसे कहां नहीं होते. हिमाचल प्रदेश के नैना देवी में हो या जोधपुर के चामुंडा देवी, केरल के सबरीमाला में हो या मध्यप्रदेश के दतिया में हो ऐसे हादसे हर जगह हो रहे हैं और इनमें सैंकड़ो लोग मारे जा रहे हैं, लेकिन व्यवस्था वाली बात भी तो सच है.

पीएमसीएच का दौरा करते हुए व्यवस्था की पोल तो जीतनराम मांझी ने भी खोल ही दी. जब उन्होंने सुप्रीटेंडेंट को बुलाया लेकिन वो उपस्थित नहीं हुए. उन्होंने सच कहने की इतनी हिम्मत तो दिखाई. इसके साथ ये भी स्पष्ट हो गया कि वहां सरकार नाम की कोई चीज नहीं है. अधिकारी उनकी सुनते नहीं और इस स्थिति के लिए जिम्मेवार नौ सालों से चल रही उन्हीं की पार्टी की सरकार है. गांधी मैदान से मुख्यमंत्री के निकलने के आधे घंटे के बाद हादसा हुआ. मुख्यमंत्री देर रात वहां पहुंचते हैं. बताया गया कि वो गया जिले में स्थित अपने गांव चले गए थे. क्या आधे घंटे में वो अपने गांव पहुंच गए? अगर आधे घंटे में पहुंच सकते हैं तो उतनी ही जल्दी लौट भी सकते हैं. बताया तो ये भी जा रहा है कि मुख्यमंत्री को घटना की जानकारी ही नहीं थी. क्या आज के हाई स्पीड टेक्नोलॉजी के जमाने में ये संभव है? अगर ये बात सच है तो इससे शर्मनाक क्या हो सकती है? फिर उनको कुर्सी पर बैठने का क्या हक है? कहा तो ये भी जा रहा है कि जिस समय हादसा हुआ वहां के बड़े अधिकारी और मंत्री एक बर्थडे पार्टी में बिजी थे. वहां सरकार का नामोनिशान नहीं था. पुलिस घटनास्थल पर पहुंचने वाली स्थिति में थी.

देश में धार्मिक आयोजनों के समय ज्यादा हादसे होते हैं. एक अफवाह बारूद में चिंगार का काम करती है, लेकिन सरकार और अधिकारियों ने इससे कोई सबक सीखा. जिम्मेवारी को दूसरे पर थोपने, जांच आयोग बिठाने कुछ अधिकारियों को सस्पेंड करने और लाख दो लाख का मुआवजा देने कर मामले को दबाने का निर्लज्ज काम जारी है. जिन्होंने अपनों को खोया है, जिनके लिए दशहरे का जश्न मातम में तब्दील हो गया और जो लोग शायद ही कभी दशहरे की खुशी मना पाएंगें, क्योंकि यह दिन उनके लिए काली याद बनकर रह जाएगी, क्या लाख दो लाख रुपये से उनका जख्म मिट जाएगा? क्या इतनी सस्ती है हमारी जान की कीमत?

पटना के कमिश्नर, डीएम, डीआईजी और एसएसपी का तबादला कर दिया है, लेकिन अधिकारियों पर गैरइरादतन हत्या का मुकदमा क्यों न चलाया जाए? समय है कठोर फैसले का. सिर्फ तबादले और जांच आयोग से काम नहीं चलेगा. अधिकारियों की जिम्मेदारी तय कीजिए और उन्हें सजा दीजिए. सरकार के लिए भी संदेश है कि केवल रटे-रटाए बयानों से काम नहीं चलेगा. एक्शन लिजिए नहीं तो यूपीए-टू के बाद जेडीयू-टू का भी इतिहास लिख दिया जाएगा.

 

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